सुषटिखण्ड ]
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हो जाते हैं। आश्रमोंका ढंग भी बिगड़ जाता है। जब
युगका अन्त होनेको आता है, उस समय तो वणेकिं
पहचाननेमें भी सन्देह हो जाता है--कौन मनुष्य किस
वर्णका है, यह समझना कठिन हो जाता है। यह बारह
हजार दिव्य वर्षोका समय एक चतुर्युग (चौकड़ी)
कहलाता है; इस प्रकारके हजार चतुर्युग बीतनेपर
ब्रह्माका एक दिन होता है।
इस प्रकार ब्रह्माकी भी आयु जब समाप्त हो जाती है,
तब काल सम्पूर्ण प्राणियोंके दारीरकी आयु पूरी हुई जान
जगत्क्त संहार करनेके लिये महाप्रलय आरम्भ करता है ।
योग-शक्ति-सम्पन्न सर्वरूप भगवान् नारायण सूर्यरूप
होकर अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्रोंको सोख लेते हैं।
तदनन्तर श्रीहरि बलवान् वायुका रूप धारणकर सारि
जगत्को कंपते हुए प्राण, अपान और समान आदिके
द्वार आक्रमण करते है । घ्राणेन्दरियका विषय, ध्राणेन्दरिय
तथा पार्थिव झरीर--ये गुण पृथ्वीम समा जाते हैं।
रसनेन्द्रिय, उसका विषय रस ओर सह आदि जलके गुण
जले लीन हो जाते है । नेत्रेन्द्रिय, उसका विषय रूप और
मन्दता, पटुता आदि नेत्नके गुण--ये अप्नि-त्त्वमें प्रवेश
कर जाते हैं। वागिन्द्रिय और उसका विषय, स्पर्श और
चेष्टा आदि वायुके गुण--ये वायुम समा जाते हैं।
श्रवणेन्दिय ओर उसका विषय दाब्द तथा सुननेकी क्रिया
आदि गुण आकारे विलीन हो जाते है । इस प्रकार
कालरूप भगवान् एक ही मुहूर्तम सम्पूर्ण लोकैकी
जीवनयात्रा नष्ट कर देते है । मन, बुद्धि, चित्त और
्षतरज्ञ-ये परमेष्ठी ब्रह्माजीमें लीन हो जाते हैं और
ब्रह्माजी भगवान् हषीकेशमें लीन ह्यो जाते है । पञ्च
महाभूत भी उस अमित तेजस्वी विभुमें प्रवेद कर जाते
हैं। सूर्य, वायु और आकाझके नष्ट हो जाने तथा सूक्ष्म
जगत्के भी लीन हो जानेपर अमितपराक्रमी सनातन पुरुष
भगवान् श्रीविष्णु सबको दग्ध करके अपनेमें समेटकर
अकेले ही अनेक सहस्र युगोतक एकार्णवके जलमें शयन
करते हैं। उन अव्यक्तं परमेश्वरके सम्बन्धे कोई व्यक्त
जीव यह नहीं जान पाता कि ये पुरुषरूप कौन हैं । उन देव-
श्रेष्ठक विषयमें उनके सिव्रा दूसरा कोई कुछ नहीं जानता ।
* भगवान् श्रीनारायणकी महिमा तथ्या पार्कष्डेयजीको भगवानके दर्शन +
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भीष्म एक समयकी यात सुनो, महामुनि
मार्कण्डेयको एकार्णवके जलमें शयन करनेवाले भगवान्
कौतृहलवज्ञ अपने मुँहमें लील गये । कई हजार वर्षौकी
आयुवाले वे महर्षि भगवानके ही उत्कृष्ट तेजसे उनके
उदरम् तीर्थयात्राके प्रसज़से विचरते हुए पृथ्वोके समस्त
तीथॉमें घूमते फिरे। अनेकों पुण्यतीधेकि जलसे युक्त
खन और नाना प्रकारके आश्रम उन्हें दृष्टिगोचर हुए।
उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न चज्ञोंद्रारा यजन करनेवाले
यजमानों तथा यज्ञम सम्मिल्लित सैकड़ों त्राह्मणॉंकों भी
उन्होंने भगवान्के उदरमें देखा । वहाँ ब्राह्मण आदि सभी
वर्णोक रोग सदाचारमें स्थित थे। चारों ही आश्रम
अपनी-अपनी मर्यादामें स्थित थे। इस प्रकार भगवानके
उदरमें समूची पृथ्वीपर विचरते बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीको
सौ वर्षोंसे कुछ अधिक समय बीत गया । तदनन्तर वे
किसी समय पुनः भगवानके मुख़से बाहर निकले। उस
समय भी सब ओर एकार्णवका जल ही दिखायी देता
था। समस्त दिद्याएँ कुहरेसे आच्छादित थीं। जगत्
सम्पूर्ण प्राणियोंसे रहित था। ऐसी अवस्थामें
मार्कष्डेयजीने देखा--एक बरगदकी शाखापर एक
छोटा-सा बालक सो रहा है । यह देखकर मुनिको बड़ा