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एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः ।

ब्रिशद्धागन्तु मेदिन्यास्तदा मौहूर्तिकी गतिः ॥ २६

कुलालचक्रपर्यन्तो श्रमन्नेष दिवाकरः ।

करोत्यहस्तथा रात्रि विमुञ्चन्मेदिनीं द्विज ॥ २७

अवनस्योत्तरस्यादौ प्रकरं याति भास्करः ।

ततः कुम्भ च मीनं च राहो राइयन्तरं द्विज ॥ २८

त्रि्नेतेघ्ठथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम्‌ ।

प्रयाति सविता कुर्वन्रहोरात्रं ततः समम्‌ ॥ २९

ततो रात्रि: क्षयं याति वरद्धतेऽनुदिनं दिनम्‌ ॥ ३०

ततश्च पिधुनस्थान्ते परां काष्ठामुपागतः ।

रादि कर्कटक प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम्‌ ॥ ३९

कुल्ालचक्रपर्यन्तो यथा शीध्रं प्रवर्तते ।

दक्षिणप्रक्रमे सूर्यस्तथा रीघ्रं प्रवर्तते ॥ ३२

अतिवेगितया काल वायुवेगवबलाच्चरन्‌ ।

तस्मात्मकृष्टां भूमि तु कालेनाल्पेन गच्छति ॥ ३३

सूर्यो द्वादशभि: शैघ्रयान्मुहूतैंदक्षिणाबने ।

त्रयोदशा्धमृक्षाणामह्वा तु चरति द्विज ।

मह्तस्तावदृक्चाणि नक्तमष्ठादशौश्चरन्‌ ॥ ३४

कुलालचक्रमध्यस्थो यथा मन्दं प्रसर्पति ।

तथोदगयने सूर्यः सर्पते मन्दविक्रमः ॥ ३५

तस्माहीर्घेण कालेन भूमिमल्पां तु गच्छति ।

अष्टादशमुहूते यदुत्तरायणपश्चिमम्‌ ॥ ३६

अहर्भवति तच्चापि चरते मन्दविक्रमः ॥ ३७

त्रयोदशार्द्ममह्ला तु ऋश्चाणां चरते रविः ।

रत्नौ द्वादशभिश्षरन्‌ ॥ ३८

अतो मन्दतरं नाभ्यां चक्रं भ्रमति वै यथा ।

मृत्पिण्ड इव मध्यस्थो धुवो भ्रमति वै तथा ॥ ३९

द्वितीय अंश

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है, किन्तु सूर्य-अस्त हो जानेपर उसमें दिनका प्रवेश हो

जाता है; इसलिये दिनके प्रवेशके कारण ही रात्रिके समय

खह शुक्वतर्ण हो जाता है ॥ २५ ॥

इस प्रकार जब सूर्य पुष्करद्रीपके मध्यमें पहुँचकर

पृथ्वोका तीसवाँ भाग पार कर लेता है तो उसकी बह गति

एक मुहूर्तकौ होती है । [ अर्थात्‌ उतने भागके अतिक्रमण

कन्म उसे जितना समय लगता है वही मुहूर्त कहलाता

है ] ॥ २६ ॥ हे द्विज ! कुलाल-चक्र (कुम्हारके नाक)

के सिरेपर घूमते हुए जोकके समान भ्रमण करता हुआ यह

सूर्य पृथिवीके तीसों भागोंक़ा अतिक्रमण करनेपर एक

दिन-गत्रि करता है॥२७॥ हे द्विज! उत्तरायणके

आरम्भमें सूर्य सबसे पहले मकरराशिमें जाता है, उसके

पश्चात्‌ वह कुम्भ और मीन गाचियोपे एक राशिसे दूसरी

गिम खाता है ॥ २८ ॥ इन तीनों गशियोक्त्रे भोग चुकनेपर

सूर्य रात्रि और दिनको समान करता हुआ बैषुबती गतिका

अवलम्बन करता है, [ अर्थात्‌ वह भूमध्य-रेखाके बीचमें

ही चलता है ] ॥ २९॥ उसके अनन्तर नित्यप्रति गात्रि

क्षीण होने लगती है और दिन बढ़ने छंगता है । फिर [ मेष

तथा वुष ग़शिका अतिक्रमण कर ] मिथुनराहिसे

निकलकर उत्तरायणकी अन्तिम सीमापर उपस्थित हो

यह कर्कराशिमें दक्षिणायनका आरम्म करता

है ॥ ३०-३१ ॥ जिस प्रकार कलल -च््रके सिरेपर स्थित

जोव अति शीघ्तासे घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी

दक्षिणायनको पार करनेमें अति शीघ्रतासे चलता

है ॥ ३२ ॥ अतः वह अति शौघतापूर्वक वायुवेगसे चलरे

डर अपने उत्कृष्ट मार्गको थोड़े समयमे ही पार कर लेता

॥ ३३॥ हे द्विज! दक्षिणायनमें दिनके समय

शीघ्रतापूर्वक चलनेसे उस समयके साढ़े तेरह नक्षत्रॉको

सूर्य बारह मुहूर्तम पार कर लेता है, किन्तु रात्रिके समय

(मन्दगामी होनेसे) उतने हो नक्षत्रोंकी अठारह मुहूर्तो.ि पार

करता है ॥ ३४ ॥ कुल््रल-चक्रके सध्ये स्थित जीव जिस

प्रकार धीरे-धीरे चलता है उसी प्रकार उत्तायणके समय

सूर्य गन्दगतिसे चलता है ॥ ३५॥ इसलिये उस समय

वह धोड़ी-सी भूमि भी अति दीर्घकालमें पार करता है,

अतः उत्तरायणका अन्तिम दिन अठारह मुहूर्तका होता

है, उस दिन भी सूर्य अति मन्दगतिसे चलता है और

ज्योतिश्षक्रार्धक॑ साढ़े तेरह नक्षत्रोंकी एक दिनमें पार

करता है किन्तु रात्रिके समय वह उतने ही (साढ़े तेरह)

नक्षत्रोंकी बारह मुडि हो पार कर लेता है ॥ ३६--३८ ॥

अतः जिस प्रकार नाभिदेशमें चक्रके मन्द्‌-मन्द घूमनेसे

खहाँका मृत्‌-पिष्ड भी मन्दगतिसे घूमता है उसी प्रकार

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