दुःसहौ स्रन्तानोंद्ारा ह्रोनेयाले चिघ्न ओर उनकी शान्तिके उपाय +
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जो सदा यज्ञ, अध्ययन, वेदाभ्यास और दानमे मद
लगाता है, यज्ञ कराने, शास्त्र पढ़ाने तथा उत्तम
दान ग्रहण छरनेसे ही जिसकी जीविका चलती
हो, ऐसे ब्राह्मणको भी तुम त्याग देना। दुःसह !
जो सदा दान, अध्ययन और यज्ञके लिये उद्यत
रहता और अपने लिये उत्तम एवं विशुद्ध शस्त्रप्रहणकी
वृत्तिसै जीविका चलाता हो, उस क्षत्रिवर्के पासं
भो तुम न जाना। जो दान, अध्ययन और
यज्ञ-इन तीज पूर्वोक्त गुणोंसे युक्त हों और पशु
पालन, व्यापार एवं कृषिसे जीविका चलातां हो,
ऐसे पापरहित वरैश्यको भी त्याग देना। यक्ष्मन्
जो दान, यक्ष और द्विजोंकी सेवामें तत्पर रहता
और ब्राह्मण आंदिकी सेवासे हीं जीवन निर्वाह
करता हो--ऐसे शूद्रका भी त्याग कर देना।
जहाँ गृहस्य पुरुष श्रुति-स्मृतिके अनुकूल
उपायसे जीविका चलाता हो, उसकी पत्नी उसीको
अनुगामिनी हो, पुत्र गुरु, देवता और पिताकरा
पूजन करता हो तथा पत्नी भी पतिको पूजामें
संलग्न रहती हो, वहाँ अस्क्ष्मीका भय कैसे हो
सकता ई । चक्ष्मन्! जो प्रतिदिन संध्याके श्चपय
पानोसे धोया जाता और स्थान-स्थानपर फूलोंसे
पूजित होता है, उस रकौ ओर तुम आँख
उठाकर देख भी नहीं सकते। जिस घमं बिछी
हुई शग्याक्रो सूर्य न देखते हों अर्थात् जहाँ लोग
सूर्योद्यसे पहले ही सोक उठ जाते हों, जहाँ
प्रतिदिन अग्नि और जल प्रस्तुत रहता हीं,
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सूर्योदय होनेतक दीप जलता एवं सूर्बका पूर्ण
प्रकाश पहुँचता हो,वह घर लक्ष्मीका निवास-
स्थान है। जहाँ सादु, चन्दन, वीणा, दर्पण, मधु,
घृत, ब्राह्मण तथा ताबेके पात्र हों, उस चरमे
तुम्हारे लिये स्थान नहीं है।
दुःसह ! जहाँ पके या कच्चे अन्नोंका अनादर
और शास्त्रोंकी आज्ञाका उल्लह्नत होता हो, ठस घरमे
तुम इच्छानुसार विचरण करौ । जिस घरमे मनुष्यकी
हड्ढी हो और एक दिन तथा एक रात मुर्दा पड़ा रहा
हो. उसमें तुम्हारा तथा अन्य राक्षसोंका भी निबास
रहे। जो अपने भाई-बन्धुकों तथा सपिण्ड एवं
समानोदक मनुष्योंको अन्न और जल दिये ब्रिना ही
भोजन करते हैं, ठस समय उ लोगॉपर तुम
आक्रमण करो। जहाँ पुरवास्ती पहलेसे ही बड़े बड़े
उत्सव मनानेमें प्रसिद्ध हो चुके हों और पहलेकौ
ही भाँति अब अपने घग्पर उत्सव मनते हों, ऐसे
घर्मे 7 जाता। जो सूपकों हवासे, भीगे कपड़ेके
जलकी नरोपि तथा नखके अग्रभागके जलसे स्नान
करते हों, उन कुलक्षणी पुरुषेकिः पास अवश्य
जाओ। जो पुरुष देशाचार, प्रतिज्ञा, कुलधर्म, जप,
होम, मङ्गल. देवयज्ञ, उत्तम शौच तथा लेक
प्रचलित धर्मोंका भली भाति पालन करता हो, उसके
संसर्गमें तुम्हें महीँ जाना चाहिये।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--दुःसहसे ऐसी बात
कहकर ब्रह्माजो वहों अन्तर्धान हो गये। फिर उसने
भी ब्रद्माजीकी आज्ञाका उसी प्रकार पालन किया।
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दुःसहकी सन्तानोंद्वारा होनेवाले चिन्न ओर उनकी शान्तिके उपाय
मार्कण्डेबजी कड़े हैं--टुःसहको पत्नी तिर्माह्ि
हुई। यह कलिकौ कन्या थी। कलिको पज्ञोने
रजस्वला होनेपर चाण्डालका दर्शन किया था,
उसीसे इस कन्याका जन्म हुआ था। दुःसह और
निमर्िकी सोलह सन्तानं हुईं जो समस्त संसा
च्याप्त हैं। इनमें आठ पुत्र थे और आठ कन्वाएँ।
ये सब-के-सब अत्यन्त भयंकर थे। दन्ताकुष्टि,
तथोक्ति, परिवर्त, अङ्गश्रक्, शकुनि, गण्डप्रान्तरति,
गर्भहा तथा सभ्यह]--ये आठ पुत्र थे। नियोजिका,
विरोधिनी, स्कर्य॑हारिका, भ्रामणो, ऋतुहारिका,
स्मृतिहरा, बीजहरा तथा विद्वेषिणः--ये आठ
कन्यां थीं, जो सम्पूर्ण जगतृको भय देनेवाली
हुईं। अब मैं इनके कर्म तथा इनसे होनेवाले
दोषोंकी शान्तिके उपाय बतलाऊँगा। पहले आठ