Home
← पिछला
अगला →

मन्त्रके द्वारा वर्षाजलसे, व्याहतिर्योका. उच्चारण | (शु० यजु० ३४। ४४) --इन मन्त्रोंसे आहुति दे।

करके कूप-जलसे तथा 'आपो देवी:०' (शु०

यजु० १२।३५) मन्त्रके द्वारा तड़ाग-जल एवं

तोरणवर्ती वरुण-कलशके जलसे वरुणदेवको

स्नान करावे। “वरुणस्योत्तम्भनमसि०' (शु०

यजु० ४।३६) मन्त्रके द्वारा पर्वतीय जल (अर्थात्‌

इरनेके पानी)-से भरे हुए इक्यासी कलशोंद्वारा

उसको स्नान करावे। फिर "त्वं नो अग्ने वरुणस्य०'

(शु यजु २१।३) इत्यादि मन््रसे अर्ध्य प्रदान

करे। व्याहतिर्योका उच्चारण करके मधुपर्क,

"चृहस्पते अति यदर्यो० ' (शु० यजु° २६।३)

मन्त्रसे वस्त्र, 'इमं मे वरुणः०' (शु० यजु°

२१।१) इस मन्त्रसे पवित्रक और प्रणवसे

उत्तरीय समर्पित करे ॥ ११-१६॥

वारूणसूक्तसे वरुणदेवताको पुष्य, चंवर, दर्पण,

छत्र और पताका निवेदन करे। मूल-मन्त्रसे

"उत्तिष्ठ ' ऐसा कहकर उत्थापन करे । उस रात्रिको

अधिवासन करे। "वरुणं वा०' इस मन्तरसे

संनिधीकरण करके वरुणसूक्तसे उनका पूजन

करे। फिर मूल-मन्त्रसे सजीवीकरण करके चन्दन

आदिद्वारा पूजन करे। मण्डले पूर्ववत्‌ अर्चना

कर ले। अग्निकुण्ड समिधाओंका हवन करे ।

वैदिक मन््रोँसे गङ्गा आदि चारों गौओंका : दोहन

करे । तदनन्तर सम्पूर्ण दिशाओंमें यवनिर्मित चरुकी

स्थापना करके होम करे। चरुको व्याहति, गायत्री

या मूल-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके, सूर्य, प्रजापति,

दिव्‌, अन्तक-निग्रह, पृथ्वी, देहधृति, स्वधृति,

रति, रमती, उग्र, भीम, रौद्र, विष्णु, वरुण, धाता,

रायस्पोष, महेन्द्र, अग्नि, यम, निर्क्रति, वरुण,

वायु, कुबेर, ईश, अनन्त, ब्रह्मा, राजा जलेश्वर

(करुण) -इन नामका चतुर्थ्यन्तरूप बोलकर,

अन्ते स्वाहा लगाकर बलि समर्पित करे। "इदं

विष्णुः० ' (शु० यजु०५। १५) ओर " तद्‌ विप्रासो०'

सोमो धेनुम्‌० (शु० यजु०.३४। २१) मन्त्रसे छः

आहुतियाँ देकर “इमं मे वरुणः०' (शु० यजु°

२१। १) मन््रसे एक आहुति दे । "आपो हि ० '

(शुक्ल यजु० ११।५०--५२) आदि तीन ऋचाओंसे

तथा “दुमा रुद्र०' इत्यादि मन्तरसे भी आहुतियाँ

दे॥ १७ -२५॥

फिर दसों दिशाओंमें बलि समर्पित करे और

गन्ध-पुष्प आदिसे पूजन करे। तत्पश्चात्‌ विद्वान्‌

पुरुष प्रतिमाकों उठाकर मण्डलमें स्थापित करे

तथा गन्ध-पुष्प आदि एवं स्वर्ण-पुष्प आदिके

द्वारा क्रमशः उसका पूजन करे। तदनन्तर श्रेष्ठ

आचार्य आठों दिशाओंमें दो वित्ते प्रमाणके

जलाशय और आठ बालुकामयी सुरम्य वेदियोंका

निर्माण करे। “वरुणस्थ०' (यजु० ४।३६) इस

मन्त्रसे घृत एवं यवनिर्मित चरुकी पृथक्‌-पृथक्‌

एक सौ आठ आहुतियाँ देकर शान्ति-जल ले

आवे और उस जलसे वरुणदेवके सिरपर अभिषेक

करके सजीवीकरण करे । वरुणदेव अपनी धर्मपत्नी

गौरौदेवीके साथ विराजमान नदी-नदोंसे घिरे हुए

हैं --इस प्रकार उनका ध्यान करे । ' ॐ वरुणाय

नमः।' मन्त्रसे पूजन करके सांनिध्यकरण करे।

तत्पश्चात्‌ वरूणदेवको उठाकर गजराजके पृष्ठदेश

आदि सवारि्योपर मङ्गल. द्रव्योसहित स्थापित

करके नगरमे भ्रमण करावे। इसके बाद उस

वरुणमूर्तिको “आपो हि ष्ठा०' आदि मन्त्रका

उच्चारण करके त्रिमधुयुक्त कलश-जलमें रखे

और कलशसहित वरुणको जलाशयके मध्यभागे

सुरक्षितरूपसे स्थापित कर दे॥ २६--३१॥

इसके बाद यजमान स्नान करके वरुणका

ध्यान करे । फिर ब्रह्माण्ड-संज्ञिका सृष्टिको अग्निबीज

(रं)-से दग्ध करके उसकी भस्मराशिको जलसे

प्लावित करनेकी भावना करे। "समस्त लोक

← पिछला
अगला →