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चौंसठवाँ अध्याय

कुओं, बावड़ी ओर पोखरे आदिकी प्रतिष्ठाकी विधि

श्रीभगवान्‌ कहते हैं-- ब्रह्मन्‌! अब मैं कूप,

वापी और तड़ागकी प्रतिष्ठाकी विधिका वर्णन

करता हूँ, उसे सुनो । भगवान्‌ श्रीहरि ही जलरूपसे

देवश्रेष्ठ सोम ओर वरुण हुए है । सम्पूर्ण विश्व

अग्नीषोममय है । जलरूप नारायण उसके कारण

हैं। मनुष्य वरुणकी स्वर्ण, रौप्य या रत्नमयी

प्रतिमाका निर्माण करावे । वरुणदेव द्विभुज, हंसारूढ

ओर नदी एवं नालोंसे युक्त हैं। उनके दक्षिण-

हस्ते अभयमुद्रा और वाम-हस्तमे नागपाश

सुशोभित होता है । यज्ञमण्डपके मध्यभागे कुण्डसे

सुशोभित वेदिका होनी चाहिये तथा उसके तोरण

(पूर्व-द्वार)-पर कमण्डलुसहित वरुण-कलशकी

स्थापना करनी चाहिये। इसी तरह भद्रक (दक्षिण-

द्वार), अर्द्धचन्द्र (पश्चिम-द्वार) तथा स्वस्तिक

(उत्तर-द्वार)-पर भी वरुणकलशोंकी स्थापना

आवश्यक है। कुण्डमें अग्निका आधान करके

पूर्णाहुति प्रदान करे ॥ १--५॥

“ये ते शतं वरुण०' आदि मन्त्रसे स्नानपीठपर

वरुणकौ स्थापना करे । तत्पश्चात्‌ आचार्य मूल-

मन्त्रका उच्चारण करके, वरुण देवताकी प्रतिमाको

वहीं पधराकर, उसमें घृतका अभ्यङ्ग करे । फिर

“शं नो देवी०” (अथर्व० १।६। १; शु० यजु०

३६।१२) इत्यादि मन््रसे उसका प्रक्षालन करके

शुद्धबालः० सर्वशुद्धवालो०' (शु यजु°

२४।३) आदिसे पवित्र जलद्रारा उसे स्नान

करावे। तदनन्तर स्नानपीटकी पूर्वादि दिशाओंमें

आठ कलर्शोका अधिवासन ( स्थापन) करे । इनमेंसे

पूर्ववर्ती कलशमें समुद्रके जल, आग्नेयकोणवर्ती

कुम्भमें गङ्गाजल, दक्षिणके कलशे वषकि जल,

नैर्््यकोणवाले कुम्भमें झरनेके जल, पश्चिमवाले

कलशमें नदीके जल, वायव्यकोणमें नदके जल,

उत्तर-कुम्भमें औद्धिज (सोते)-के जल एवं

ईशानवर्ती कलशमें तीर्थके जलको भरे। उपर्युक्त

विविध जल न मिलनेपर सब कलमे नदीके

ही जलको डाले। उक्त सभी कलशोॉंको "यासां

राजा०' (अधर्व० १।३३।२) आदि मन््रसे

अभिमन्त्रित करे। विद्वान्‌ पुरोहित वरुणदेवका

*सुमित्रिया०' (शु० यजु० ३५। १२) आदि मन्त्रसे

मार्जन और निर्मज्छन करके, "चित्रं देवानां०'

(शुर यजु० १३।४६) तथा “तच्चश्षु्देवहितं०'

(शु० यजु० ३६। २४)-इन मन्‍्त्रोंसे मधुरत्रय

(शहद, घी और चीनी) द्वारा वरुणदेवके नेत्रोंका

उन्मीलन करे। फिर वरुणकी उस सुवर्णमयी

प्रतिमामें ज्योतिका पूजन करे एवं आचार्यको

गोदान दे॥ ६--१० ३ ॥

तदनन्तर 'समुद्रज्येष्ठा:०' (ऋक्‌० ७।४९।१)

आदि मन्त्रके द्वारा वरुणदेवताका पूर्व-कलशके

जलसे अभिषेक करे। “समुद्र गच्छ०' (यजु०

६।२१) इत्यादि मन्त्रके द्वारा अग्निकोणवर्ती

कलशके गङ्गाजलसे, 'सोमो घेनुं०' (शु० यजु०

३४। २१) इत्यादि मन्त्रके द्वारा दक्षिण-कलशके

वर्षाजलसे, 'देवीरापो०' (शु० यजु० ६। २७)

इत्यादि मन्त्रके द्वारा नैर्ऊत्यकोणवर्ती कलशके

निर्शर-जलसे, ' पञ्च नद्यः० ' (शु० यजु० ३४। ११)

आदि मन्त्रके द्वारा पश्चिम-कलशके नदी-जलसे,

“उद्धिदभाव:०' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उत्तरवतीं

कलशके उद्धिज-जलसे और पावमानी ऋचाके

द्वारा ईशानकोणवाले कलशके तीर्थ-जलसे वरुणका

अभिषेक करे। फिर यजमान मौन रहकर *आपो

हि छार" (शु यजु० ११।५०) मन्त्रके द्वारा

पञ्चगव्यसे, 'हिरण्यवर्णा०' (श्रीसूकू) -के द्वारा

स्वर्ण-जलसे, ' आपो अस्मान्‌० ' (शु० यजु० ४।२)

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