ख्राह्मपर्त ]
* श्रीसूर्वनारायपाके आयुध--य्योमका लक्षणा और माहात्य +
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भुवलेंकके वायु ओर स्वर्लोके स्वामी सूर्य है । मरुद्गण
भवर्ोकमे रहते हैं और रुद्र, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसुगण
तथा देवगण स्व्त्कमे निवास करते रै । चौथा महर्लोक है,
जिसमें प्रजापतियो सहित कल्पवासी रहते हैं। पार्ये
जनलोकमें भूमिदान करनेवाले तथा छठे तपोत्तरेकमे ऋभु,
सनत्कुमार तथा वैराज आदि ऋषि रहते हैं। सातवें सत्यलोकमे
वे पुरुष रहते हैं, जो जन्म-परणसे मुक्ति पा जते हैं।
इतिहास -पुराणकेः वक्ता तथा श्रोता भी उस लोकको प्राप्त करते
है । इसे ब्रह्मलोक भी कहा गया है, इसमें न किसी प्रकारका
विघ्न है न किसी प्रकारकी बाधा।
देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग, भूत और
विद्याधर --ये आठ देवयोनियां हैं। इस प्रकार इस व्योममें
सातो लोक स्थित हैं। मरुत्, पितर, अग्नि, ग्रह और आरो
देवयोनियाँ तथा मूर्त ओर अमूर्त सब देवता इसी व्योममें स्थित
है। इसलिये जो भक्ति और श्रद्धासे व्योमका पूजन करता है,
उसे सब देवता ओके पूजनका फल प्राप्त हो जाता है और वह
सूर्यल्लेककोी जाता है। अतः: अपने कल्याणके लिये सदा
व्योमका पूजन करना चाहिये ¦
महीपते ! आकादा, ख, दिक्, व्योम, अन्तरिक्ष, नथ,
अम्बर, पुष्कर, गगन, मेरु, विपुल, बिल, आपोछिद्र, शून्य,
तमस्. रोदसी--व्योमके इतने नाम कहे गये हैं ¦ लवण, क्षीर,
दधि, धृत, मधु, इक्षु तथा सुस्वादु (जलवाल्म)--ये सात
समुद्र है । हिमवान्, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत, भृङ्गवान्-- ये
छः वर्षपर्वत है । इनके पथ्य महाराजत नामक पर्वत है।
माहेद्री, आग्नेयी, याम्या, नैतौ, वारुणो, कायवो, सौम्या तथा
ईशानी--ये देवनगरियां ऊपर समाश्रित रै । पृथ्वीके ऊपर
ल्त्रेकालोक पर्वत है। अनन्तर अण्डकपाल, इससे परे अग्नि,
वायु, कादा आदि भूते कहें गये हैं। इससे परे महान्
अहंकार, अहंकारसे परे प्रकृति, प्रकृतिसे पर पुरुष और इस
पुख्यसे परे ईश्वर है, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् आयुत है ।
भगवान् भास्कर ही ईश्वर हैं, उससे यह जगत् परिव्याप्त है। ये
सहस्त्रों किरणवाले, महान् तेजस्वी, चतुर्बाहु एवं महाबलो हैं।
भूर्मेक, भुवलनोंक, स्वॉंक, महरल्तेंक, जनलोक,
तपोलोक और सत्यस्लेक--ये सात स्प्रेक कहे गये हैं।
भूमिके नीचे जो सात लोकं हैं, ये इस प्रकार हैं-- तल, सुतल,
पाताल, तलातल, अतल, वितल और रसातल । काञ्चन मेरु
पर्वत भूमण्डलके मध्यमें फैला हुआ चार रमणीय शङ्गौसे
युक्त तथा सिद्ध-गन्धवॉसे सुमेवित है । इसकी ऊँचाई चौगासी
हजार योजन है । यह सोलह हजार योजन भूमिमें नीचे प्रविष्ट
है। इस प्रकार सब मिलाकर एक लाख योजन मेरुपर्वतका
मान है। उसका सौमनस नामका प्रधम श्रृत्र सुवर्णका है,
ज्योतिष्क नामको द्वितीय शद्ग पद्चराग मणिका है। चित्र
नामक तृतीय शुङ्ग सर्वघातुमय है और चन्द्रौज़स्क नामक
चतुर्थ शुङ्ग चाँदीका है । गाङ्गेय नामक प्रथम सौमनस रङ्खपर
भगवान् सूर्यका उदय होता है, सूर्योदयसे ही सब त्ये देखते
हैं, अत: उसका नाप उदयायल है। उत्तरायण होनेपर सौमनस
शुङ्गसे और दक्षिणायन होनेपर ज्योतिष्क रूङ्गसे भगवान् सूर्य
उदित होते हैं। मेष और नुता -संक्रन्तियोप मध्यके दो शूद्गोमि
सूर्यका उदय होता है। इस पर्वतके ईश्ञानकोणमें ईश और
अभ्निकोणमें इन्द्र, नर्ऋत्यक्रोणमें अद्भि और वायव्यकोणमें
मरुत् तथा मध्यमें साक्षात् ब्रह्मा, ग्रह एवं नक्षत्र स्थित हैं। इसे
व्योप कहते है । व्योमपें सूर्यभगवान् स्वयै निवास करते हैं,
अतः यह व्योम सर्वदेवमय और सर्वल्प्रेकमय है ¦ राजन् !
पूर्वकोणमें स्थित शुद्भपर शुक्र हैं, दूसरे शूङ्गपर हेलिज
(इनि), तीसरेपर कुबेर, चौथे शुद्गपर सोम हैं। मध्ये ब्रह्मा,
विष्णु और शिव स्थित हैं। पूर्वोत्तर शुड्ल्पर पितृगण और
ल्त्रेकपूजित गोपति महादेव निवास करते हैं। पूर्वाग्रिय झृज्ञपर
शाण्डिल्य निवास करते हैं। अनन्तर महातेजस्वी हेल्लिपुत्र यम
निवास करते हैं। नैर्कत्यकोणके रुङ्गमं महा्बलदाली
विरूपाक्ष निवास करते हैं। उसके बाद वरुण स्थित हैं,
अनन्तर महातेजस्वौ महाबत्मे वीरमित्र निवास करते हैं। सभी
देवौके नमस्कार्यं वायव्य शूङ्गका आश्रयणकर नरवाहन कुबेर
निवास करते हैं, मध्यमें कर्मा, नीचे अनन्त, उपेन्द्र और शंकर
अवस्थित हैं । इसीको मेर, व्योम और घर्म भी कहा जाता है ।
यह व्योपस्वरूप मेरु वेदमय नामसे प्रसिद्ध है। चारों श्रृद्ध चारों
वेदस्वरूप हैं। (अध्याय १२५-१२६)
भत्व