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वाराणसी माहात्म्य |] [ १४७

विमुक्तं न मया यस्मान्मोक्ष्यते वा कदाचन ।

महत्‌ क्षेत्रमिदं तस्मादवियुक्तमिदंस्मृतम्‌ ।५८

नैमिषेऽथ कुरुक्षेत्र गङ्गाद्वारे च पुष्करे ।

स्नानात्‌ संसेविताद्वापि न मोक्षः प्राप्यते यतः ।५५

इह संप्राप्यते येन तत्त एतद्विशिष्यते ।

प्रयागे च भवेन्मोक्ष इह वा मत्परिग्रहात्‌ ।५६

कमल-उत्पल पुष्पों से आढ्य सरोवरो से समलंकृत-अप्सराओं से

गण और गन्धवोकि द्वारा सदा से सेवित शुभ स्थल यह है । जिस कार्य

के कारण मुझे सदा इसका निवास पसन्द है उसेभी सुनलो । मेरे में ही

मनको निवेशित करने वाला मुझमें ही सर्वस्व समित कर देने वाला

तथा सब किए हुए कर्मों को भी मेरी ही सेवा में अपित करने वाला

मेरा भक्त जिस प्रकार से यहाँ मोक्ष की प्राव्ति कर लेता है वैसा अन्य

किसी भी स्थान में नहीं कर सकता है । यह ही मेरा परम दिन्य-महत्‌

और गृह्य से गृहयतम क्षोत्र है ।५०-५२। ब्रह्मादिक देवगण और जो

भी मुमुक्ष सिद्ध लोग हैं वे इसे भली भाँति जानते हैं। इसीलिए मेरा

सबसे अधिक प्रिय क्षेत्र है और इसी कारण से मेरी यहाँ पर अत्यधिक

रति है | इसी से मैंने इसको कभी नहीं छोड़ा है और न भविष्य में भी

मोरे द्वारा इसका त्याग किया जायगा इसी से उसका यह महत्‌ कोत्र है

और यह उसका अवियुक्त क्षेत्र कहा गया है ।५३-५२। नैमिष-क्‌रुक्षेत्र

गद्भाद्वार और पुष्कर में स्नान करने से तथा सेवित करने ,से भी मोक्ष

प्राप्त नहीं क्रिया जाता है । वही परम दुलंभ मोक्ष यहाँ पर सम्प्राप्त

कर लिया जाया करता है। इसी से यह सबसे विशिष्ट होता है । या

तो प्रयाग में इस मोक्ष की प्राप्ति होती है अथत्रा यहाँ पर मेरे परिग्रह्‌

करने से मुक्ति हो जाती है ।५५-५६।

प्रयागादपि तीर्थाग्यादिदमेव महत्‌ स्मृतम्‌ ।

जैगीषव्यः परां सिद्धि योगतः स महातपाः ।५७

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