९९ अथर्ववेट संहिता घाग-२
३९०७, उशतीः कन्यला इमाः पितृलोकात् पतिं यतीः ।
अव दीक्षामसूक्षत स्वाहा ॥५२ ॥
पितृगृह से पतिगृह में आती हुई और श्रेष्ठ वर की कामना से युक्त ये कन्यां गृहस्वथर्म के दीक्षाव्रत को
धारण करें, यह सुन्दर उक्ति है (अथवा इस संदर्भ मे आहुति को समर्पित करते हैं) ॥५२ ॥
३९०८. बृहस्यतिनावसुष्टा विशवे देवा अधारयन् ।
वचो गोषु प्रविष्टं यत् तेनेमां स॑ सृजामसि ॥५३ ॥
वृहस्पतिदेव द्वारा रचित इस ओषधि अथवा दीक्षा को सम्पूर्ण देवों ने ग्रहण किया है, उसे हम गौओं
(गौओं-इन्द्रियों) में प्रविष्ट हुए वर्चस् से संयुक्त करते है ॥५३ ॥
३९०९. बृहस्पतिनावसूष्टां विश्च देवा अधारयन् ।
तेजो गोषु प्रविष्टं यत् तेनेमां सं सृजामसि ॥५४ ॥
बृहस्पतिदेव दवारा विरचित इस ओषधि या दीक्षा को विश्वेदेवों ने ग्रहण किया, उसे हम गौ ओं मे प्रविष्ट हुई
तेजस्विता से संयुक्त करते है ॥५४ ॥
३९१०. बृहस्यतिनावसृष्टा विशवे देवा अधारयन् ।
भगो गोधु प्रविष्टो यस्तेनेमां स॑ सृजामसि ॥५५ ॥
बृहस्पतिदेव द्वारा निर्मित इस ओषधि अथवा दीक्षा को विश्वेदेवों ने धारण किया, उसे हम गौओं में प्रविष्ट
हुए परम सौभाग्य से संयुक्त करते हैं ॥५५ ॥
३९१९. बृहस्पतिनावसूष्टां विश्वे देवा अधारयन्
यशो गोषु प्रविष्टं यत् तेनेमां सं सृजामसि ॥५६ ॥
बृहस्पतिदेव द्वारा सृजित यह ओषधि या दीक्षा सभी देवों द्वारा स्वीकार हुई है, उसे हम गौओं में प्रविष्ट हुई
यशस्विता से संयुक्तं करते हैं ॥५६ ॥
३९१२. बृहस्पतिनावसूष्टां विशचे देवा अधारयन् ।
पयो गोषु प्रविष्टं यत् तेनेमां सं सृजामसि ॥५७ ॥
बृहस्पति द्वारा रचित इस ओषधि या दीक्षा को समस्त देवों द्वारा धारण किया गया है । उसे हम गौओं में
प्रविष्ट हुए दूध से संयुक्त करते हैं ॥५७ ॥
३९१३. बृहस्पतिनावसूष्टां विश्च देवा अधारयन् ।
रसो गोधु प्रविष्टो यस्तेनेमां स॑ सृजामसि ॥५८ ॥
बृहस्पति द्वारा निर्मित इस ओषधि अथवा दीक्षा को सभी देव शक्तियो ने धारण किया है । उसे हम गौओं
में प्रविष्ट हुए रस से संयुक्त करते हैं ॥५८ ॥
३९१४. यदीमे केशिनो जना गृहे ते समनर्तिषू रोदेन कृण्वन्तो ३घम् ।
अम्निष्टवा तस्मादेनसः सविता च प्र मुञ्चताम् ॥५९ ॥