परशुराम का संवाद ] [ १३५
अधुनेवाश्रमादस्मात्तपसे धृतमानसः ।
तत्र गत्वा महाभाग कृत्वाऽश्रमपदं शभम् ।।७५
आराध्य महादेवं तपसा नियमेन च ।
प्रीतिमृत्पा्य तस्य त्वं भक्तचानन्यगयाचि रात् ।।७६
श्रयो महदवाप्नोषि नात्र कार्या विचारणा ।
तरसा तव भक्तया च प्रीतो भवति णङ्कुरः ७७
मुनि ने कहा था+-+है वत्स ! उपहवर में आओ । वह् रामभी उन
मुनि के समीप में जाकर अपने हाथ जोड़कर उनका उसने अभिवादन किया
था।७१। राम परम प्रसन्न आत्मा से उनके आगे स्थित हो गया था और
प्रसन्न मन वाले भूयु ने आशीर्वादों के द्वारा अभिनन्दन किया था ।७२।
उसने न अधिगत अश वाले राम को आदर के साथ देखकर कहा था । हे
वत्स ! आप मेरा वचन श्रवण करो जो इसे समय में गै आपको कहैगा ॥७३!
यह वचन समस्त लोकों के तुम्हारे और हमारे हित के लिये है। हे पुत्र !
मेरे आदेश से अब महान् पर्वत हिमवान् को चले जाओ ।७४। तपश्ययाँ
करने के लिये अपने मन में निश्चय करके इसो समय इस आश्रम से चले
जाओ । हे महाभाग, वहाँ जाकर उस आश्रम के स्थान को शुभ बना दो
।॥७५) यढ़ाँ पर तपस्या और नियम से महादेवजी की समाराधता करो ,
चिरकाल तक अनन्य भक्तिसे आप उनकी प्रीति का समुत्पादन करो ।७६।
इसके करने से आप महानु श्रेय की प्राप्ति करेंगे--इस विषय में लेशमात्र
भी सन्देह नहीं करता चाहिए । गोघ्न ही आपकी भक्ति से भगवान् शद्भुर
परम प्रसन्न हो जायेंगे ।७७।
करिष्यति च ते स्वं मनसा यद्यदिच्छसि ।
तुष्टं तस्मिर्जगन्नाये णङ्कुरे भक्तवत्सले ॥७८
अस्वग्राममणेषं त्वं वृणु पुत्र यथेप्सितम् ।
त्वया हितार्थं देवानां करणीयं सुदुष्करम् ।। ७६
विद्यतेऽभ्यधिकं कर्म शस्व्रसाध्यमनेकशः ।
तस्मात्त्वं देवदेवेशं समाराध्य शङ्धुःरम् ॥८५
भक्तया परमया युक्तस्ततोऽभीष्टमवाप्स्यसि ।\८१