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पूर्वभागे पविशोऽध्यायः हि

किपर्थ पृण्डरोकाक्ष तप्यते भवता तपः।

त्वपेव दाता सर्वेषां कामानां कर्मणापिह्‌॥ ८ ०॥

शम्भु ने कहा- हे पुण्डरीकाक्ष! आप किस प्रयोजन हेतु

ऐसा कठोर तप कर रहे हैं? इस संसार में आप स्वयं हौ

सम्पूर्ण कर्मों के फलों तथा कामनाओं के प्रदाता हैं।

त्वं हि सा परमा पू्तर्मम नारायणाह्वया।

न विना त्वां जगत्सर्वं विते पुरुयोत्तम।। ८१

आप वहां मेरी नारायण नाम वाल परम पूर्ति है। हे

पुरुषोत्तम! आपके विना इस सप्पूर्ण जगत्‌ की विद्यमानता

ही नहीं है।

वेश्थ नारायणानसमात्पा परमेश्रप।

प्रहादेव महायोगं स्वेन योगेन केशवा॥ ८ २॥

है नारायण! हे केशव! आप अनन्तात्मा - परमेश्वर महादेव

और महायोग को अपने हो योग के द्वारा जानते हैं।

श्रुत्वा तद्वचनं कृष्ण: प्रहसन्वै वृषष्वजम्‌।

उवाचायीक्ष्य विश्वेशं देवीञ्च हिप्नैलजाम्‌॥८३॥

श्रीकृष्ण ने उनके इस वचन को सुनकर हँसते हुए

वृषभध्वज विश्वेश तथा हिम शैलजादेवी को देखकर कहा।

ज्ञातं हि भवता सर्व स्वेन योगेन शङ्करा

इच्छाम्यात्यमप॑ पुत्रं त्वद्धक देहि शङ्कर।॥ ८४॥

हे शङ्कर ! आपने अपने योग से सभी कुछ जान लिया है।

मैं अपने ही सपान आपका भक्त पुत्र ग्राप्त करना चाहता हूँ

उसे आप प्रदान कीजिए।

तथास्त्वित्याह विश्वात्पा प्रहष्टटनसा हर:।

देवमालोक्य गिरिजां केशवं परिषस्वजे॥ ८५॥

फिर विश्व्या हर ने बहुत हो प्रसत्न मन से कहा था-

तथास्तु-अर्थात्‌ ऐसा ही होवे। फिर गिरजा देवौ कौ ओर

देखकर केशव श्रीकृष्ण का आलिंगन किया था!

तेतः सा जगतां माता शङ्करार्दशरीरिणो।

व्याजहार हृषीकेशं देवी हिमगिरीद्रजा॥ ८६॥

इसके उपरान्त धावान्‌ शङ्कर की अर्द्धाज़िनो, जगत्‌ को

माता, हिमगिरि की पुत्री पार्वती देवों ने हषीके कृष्ण से

इस प्रकार कहा था।

अहं जाने तवानन्त सिश्नलां सर्वदाच्युत।

अनन्यागीश्वरे भक्तिमात्मन्यपि च केशवा। ८ ७॥

छा

हे अनन्त! हे केशव! हे अच्युत ! पैं आपकी ईश्वर के प्रति

अनन्य निशल भक्ति को सर्वदा जानती हूँ और जो मुझ में

है, वह धी जानतो हूँ।

त्वं हि नारायण: साक्षात्सर्वात्मा पुरुषोत्तम :।

प्रार्थितो दैवतैः पर्वं सञ्जातो देवकीसुत:॥८८॥

(मैं जानती हूँ कि) आप सक्षात्‌ नागयण सर्वात्मा

पुरुषोत्तम हैं। देवताओं द्वारा पहले प्रार्थना कौ गई ची,

इसीलिए देवकी के पुत्ररूप में आपने जन्म ग्रहण किया है।

पल्य त्वमात्पनात्मानमात्मानं मम सप्रति

नावयोर्विशते भेद एकं पश्यति सूरयः॥८९॥

सम्प्रति आप अपनी ही आत्मा से अपने को और मुझे भो

उस आत्मा में देखो। हम दोनों में कोई भेद नहीं है। विद्वान्‌

लोग हम दोनों को एक ही देखते है।

इमानिह वरानिष्टान्मनो गृहष्य केशव।

सर्वज्ञत्व॑ तवैश्वय॑ ज्ञानं तत्यारपेश्वरप्‌॥९०॥

ईश्वर निकला भक्तिमात्यन्यपि परं लम्‌।

फिर भी हे केशव! आप मुझसे अभीष्ट बरदानों को ग्रहण

करें। सर्वज्ञता, ऐश्वर्य, परमेश्वर सम्बन्धो ज्ञान, ईश्वर में

निश्चल भक्ति और आत्मा में भी परम बल- ये सभी ग्रहण

करो।

एवपुक्तस्तया कृष्णो महादेव्या जनाईन:॥ ९ शा

आदेश शिरसा गृष्न देवोऽप्याह तथेशरप।

महादेवौ पार्वती देवौ के द्वारा इस प्रकार कहने पर

जनार्दन श्रीकृष्ण ने उनके आदेश को सिर से ग्रहण किया।

तब देव शंकरने भी उसी प्रकार मे ईश्वर को आशीर्वाद कहे।

परगृह्य कृष्णं भगवानयेशः

करेण देव्या मह देवदेवः।

सष्पूज्ययानो मुनिभिः सुरेशै-

जगाप कैलासगिरिं गिरीक्ष:॥९२॥

इसके अनन्तर देवौ के साथ ही देवों के देव भगवान्‌ ईश

ने अपने हाथ से कृष्ण को पकड़कर मुनियों और देवेश्वरों के

द्वारा भली-भाँति पित होते हुए वे गिरीश शंकर कैलास

पर्वत को चले गये।

इति श्रीकुर्मपुराणे यदुव॑ज्ञातुकी््ते कृष्णतपश्चाणं नाप

परश्नविज्ोईध्याय:॥ २५॥

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