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अहृककार, अधिक कोष, पासण्ड, कतप्नता। अत्यन्त
विफ्यासक्ति, कृपणता, दाठता, ईर्ष्या तथा बिना किसी
अपराधके ही पुतः भित्र, पकी, स्वामी और सेवकॉका
परित्याग करना; साधु, बन्धु, तपसी, गायः क्षत्रिय, वेश्यः
ह्ली और शोको मारनो-पीटना, भगवान् शिवके आबास-
स्थानपर लो हुए. शशौ ओर पुष्यवाटिका आदिकों नष्ट
करना, जो यके अधिकारी नहीं हैं; उनका यश कराना,
जिनसे याचना करनी उचित नही, उनसे याचना करना;
यज्ञ, बगीचा, प्रेखरा, पत्ती और सन्तानकों बेचना; सीर्थ-
यात्रा, उपवास, वत तथा मन्दिरनिर्माण आदिके पुष्योका
विहय करना; श्ीके धनसे जीविका चढ्ानां। शि्वोकि
अत्यन्त वशीभूत रहना, सिपक रक्रा न न करना, ऋण
न सुकना, इट बजकर जीविका च्छना, साध्वी कन्याकी
चातो दोष निकालना, विप तथा मारणवन्तरका प्रयोग
करना; किसीका मूलोच्छेद कर डालना, उच्चाटन एवं
अमिचार कर्म करना, राग और देफ्के कार्य करना, समव
पर संस्कार न कराना, स्वीकार किये हुए. अतका परित्याग
करना, खब प्रकारके आहारोंका सेवन करना, अखत्-आस्तरों-
के अनुसार चना, यूल तरका सहारा लेना; देवता; अभि
गुर, साधु; गौ, ब्राह्मण» राज!ओं तथा चक्रवर्ती नरेशोकी
उनके सामने या प्रोक्षम निन्दा करना--ये सव उपपातक हैं।
जिन्होंने भाद और देवयशका परित्याग कर दिया दै, अपने
बर्णाअमोचित कर्मोको सर्वया छोड़ दिया दै; ओ दुराचारी,
नास्तिक, पापी और सदा झूठ बोलनेयाछे हैं। जो पर्वके
समय अथवा दिनम, जलम, विपरीत योनिमें, पश्चु-योनिमें,
रजख्लाओंमे अथवा अयोनि मेधुन करता है; जो सबसे
अप्रिव भोदते है ॥५ हैं, प्रतिखकों तोहनेवाले है तालाब
कुशन नष्ट करनेवाले हैं; जो रखका विक्रय करते हैं
जो इनकी अपेक्षा कुछ न्यून भेलीके पर्पोसे युक्त हैं)
वे पापी कहलाते हैं । अब उनझा पर्णन सुनो । जो नौ,
ब्राह्मणः » स्वामी, मित्र तथा तपस्वीज्नेफे कायम
# शरणं ग्रज सर्वेशं स्त्य जयमुमापतिम् #
[ संक्षिप्त स्कन्दपुराण
हैं; बश्चकवेष, वश्नापूर्ण कार्य तथा वश्चकंकि-ते आचरण
करते है; शठ और कटके ही व्यवहारमें छगे रहते हैं,
कपटपूर्ण शासन करते हैं और कूटनीतिका आभय लेकर
हैं; ये सब पापी हैं। जो अपने सेवकॉके प्रति
और प्रश्आओंका दमन करनेयाल्म ( उनके
करनेवाला ) है; जो झूठी दरति बोलता
+$ मित्र, याल) बृढ; दुर्बल, रोगी; भूत्यवगं,
तथा भाई-बन्धुओंको भूले छोड़कर अकेला
करता है; स्वयं तो मिठाई खाता और ब्राक्षणोंको
दूँ देता है। उसका पाक व्यर्थ जानना चाये,
किये हुए दान और वशे आदिश्य कोई
मिलता, यह ब्रह्मवादी बिद्वानोंद्ाण निन्दित
जो अजितेन्द्रिय मनुष्य सवं दी कोई नियम
उन्हें त्याग देते ६, प्रतिदिन गोओंको मारते
रवार शास देते हैं, जो दुर्बला पोषण
» पशुओंके ऊपर अधिक भार खादकः उन्हें पीड़ा
हैं, उनकी पीठमें धाय हो जानेपर मी उन्हें सवारीमें
है, उनको भोजन न देकर स्वयं खाते हैं और
येगी होनेपर भी उनकी दवा नहीं करते, बे श्व पारी हैं ।
ओ सामुद्रिक शास््रकों जीविकाका साधन बनाता है, शरक
उत्पन्न लको अपनी भावा बनाकर रखता है और जो
धर्मात्मा दोनेफा दोंग रचता टै, करे सब-के-सब पापी माने
गये हैं । जो राजा शाीय आशा उल्छद्धन करके प्रजासे
मनभाना कर छेता रै, सदा दण्ड देनेकी ही रुचि रखता है
अथवा जो अप्राधीको भी दण्ड देनेकी रुचि नहीं रखता
तथा जिसके राज्यमें प्रजा घूस पे जम) और
चोरे पीड़ित होती है, बह नरककी आगते पकाया|आता
है। जो चोरीसे दूर रइनेयाछेको चोर समझता है और
बास्तविक चोरफों नहीं मानता, वह आल्य्यदोपसे
दूषित तथा दुर्ब्यंसनो्मे आषक्त राजा नरकमें जाता
है ।० पुराणयेत्ता विद्धान् इस प्रकारके और भी बहुत-से
पाप बताते हैं । दूसरोंकी कोई भी बस्नु, बह सरके
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शी)
१६११६।
ॐ # ॐ 38
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जत्कोचरैरपि कनैशतस्करे थ
अस्व राक्ष: प्रजा राष्ट शच्दने नरकेषु सः ॥
अथौ चौरबत्पश्येशौर॑ वांचौररूपिणग् ।
जाश्स्योषदतो राज्य व्यसनों नरक रेत् ॥
( स्कं* भ्व कुना० ३६ । ७२--७५ )