आचारकाण्ड ]
* रुचिद्वारा की गयी पितृस्तुति तथा श्राद्धमे इस पिवृस्तुतिके पाठका माहात्म्य *
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जो अग्निष्यात्त, बर्हिपद्, आज्यप तधा सोमप नामक
पितृगण हैं, वे सभी इस श्राद्धमे मेरे द्वारा संतृप्त होकर
तृष्तिको प्राप्त करें। अग्निष्यात्त पितर मेरौ पूर्व दिशाकी रक्षा
कर । यर्हिपद् नामक पितृगण सर्वदा मेरौ दक्षिण दिशाकौ
अभिरश्चा करें। आस्यप पितृजन पश्चिम दिशा तथा सोमप
पितृगण उत्तर दिशाकौ रक्षा करे । ये समस्त पितृजन राक्षस,
भूत, पिज्ञाच एवं असुरग्णोकि कारण उत्पन्न दोषोंसे नित्य
सब प्रकारसे हमारी रक्षा करें।
विश्व, विश्वभुक्, आराध्य, धर्म, धान्य, शुभानन,
भूतिद, भूतिकृत् और भूति जामक जो पितरोंके नौ गण हैं
तथा कल्याण और कल्यद, कल्यकर्ता, कल्यतराश्रय,
कल्यताहेतु एवं अनघ नामक जो पितरोके छः गण कहे
गये हैं ओर वर, वरेण्य, वरद, तुष्टिद, पुष्टिद, विश्वपात एवं
धाता नामसे विख्यात-ये सात गण तथा पितृणणोंके
पापविनाशक जो महान्, महात्मा, महित, महिमायान् और
महाबल नामसे प्रसिद्ध-ये पाँच गण हैं, उन गणोंके ही
साध सुखद, धनद, धर्मद और भूतिद नामक पितरौका एक
अन्य गण-चतुष्टय कहा गया है। इस प्रकार कुल मिलाकर
उन पितरोंके एकतीस गण हो जाते हैं, जिनसे यह सम्पूर्ण
जगत् परिव्याप्त है। ये सभी पितृजन से श्राद्धमे मेरे द्वारा
प्रदत्त कव्यादिसे संतुष्ट हों।'
इस प्रकार उस रुचिकी स्तुतिसे पितर अत्यन्त प्रसन्न
हो गये। उसी समय सहसा एक दिव्य तेजोराशि उत्पन्न हुई
जो आकाशमण्डलको अपने तैजसे चतुर्दिक् परिव्याप्त कर
रहो थी। सम्पूर्ण विश्वको अपने तेजसे भलीभाँति आच्छादित
करनेवाली उस तेजोराशिको देखकर रुचि पृथिवोपर घुटने
टेककर पुत्र: इस स्तुतिका गान करने लगे-
रुचि योले -“ जो सर्वपूण्य, अमूर्त, देदौप्यमान तेजसे
युक्त, ध्यानियोकि हृदयमें विराजमान रहनेषाले एवं दिष्य
दृष्टिसे सम्पन्न पितृजन है, उन सभोको मैं नमस्कार करता
हूँ। जो इन्द्रादि देवगण, दक्ष, मरीचि एवं सप्तर्षियों तथा
अन्य श्रष्ठजनेकि नायक और सभी कामनाओंको पूर्ण
करनेवाले हैं, उन पितरोंको मैं नमन करता हूँ। जो मनु
आदि तथा सूर्य, चन्द्र एवं समुद्रके भी अधिनायक हैं, उन
समस्त पितृगणोंको मैं प्रणाम करता हूँ। जो नक्षत्र, ग्रह,
वायु, अग्नि, आकाश, स्वर्ग और पृथिवीके नेता हैं, उन
पितरोंको मैं हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ।
मैं. प्रजापति, कश्यप, सोम, वरुण और श्रेष्ठ
योगीजनोंको सर्वदा हाथ जोड़कर नमन करता हूँ। मैं स्तो
लोकमें अवस्थित सप्तगणोंको प्रणाम करता हूँ। स्वयम्भू
और योगचश्षुष् ब्रह्माको नमन करता हूँ। जो चद्धलोकको
भूमिपर अवस्थित रहनेवाले एवं योगमूर्ति-स्वरूप हैं, ऐसे
पितरोंकों नमस्कार करता हूँ तथा इस जगतूके पितृदेव
सोमको भी मैं नमन करता हूँ।
आग्नि हो जिनका रूप है-ऐसे पितरॉको मैं प्रणाम
करता हूँ। उसी प्रकार जिनसे यह सम्पूर्ण विश्व अग्नि-
सोममय है, ऐसे पितरोंको भी नमस्कार करता हूँ। जो तेजमें
विद्यमान रहते हैं, जो चन्द्र-सूयं ओर अग्निकी प्रतिमूर्ति हैं,
जो जात्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं-ऐसे उन योगपरायण
समस्त पितरोको संयतचित्तसे अवस्थित होकर मैं बार-बार
नमस्कार करता हूँ। वे सभी स्वधाभुजौ पितृजन प्रसन्न हों।'
मार्कण्डेयजीने कहा--हे मुनिश्रेष्ठ क्रौद्युकि! रुचिके
द्वारा इस प्रकार स्तुति किये गये तेज:स्वरूप ये सभी
पितृगण दसों दिशाओंकों प्रतिधासित करते हुए. प्रत्यक्ष
प्रकट हो गये।
रुचिने जिन पुष्प, गन्ध और अनुलेप पदार्थका उन्हें
निवेदन किया था, उन्होंसे विभूषित उन पितरोको उन्होंने
अपने समक्ष उपस्थित देखा।
रुचिने पुनः भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर प्रणाम निवेदन
किया और “पृथक्-पृथक्-रूपसे आप सभीको नमन है,