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सृष्टिखण्ड ]

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देवताओंके भी आराध्यदेय, देवताओंसे बढ़े-चढ़े,

कमलसे चिहित जटा धारण करनेवाले, घनुर्धर,

भीमरूप और घ॒र्मके लिये पराक्रम करनेवाले हैं।

ब्रह्मवेत्ता ओमि श्रेष्ठ त्रह्माजीकी जब इस प्रकार स्तुति

की गयी, तब वे विनीतभावसे खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीका

हाथ पकड़कर बोले--'रघुनन्दन ! आप साक्षात्‌

श्रीविष्णु हैं। देवताओंका कार्य करनेके लिये इस

पृथ्वीपर मनुष्यरूपमें अवतीर्णं हुए हैं। प्रभो ! आप

देवताओंका सम्पूर्ण कार्य कर चुके हैं। अब गङ्गाजीके

दक्षिण किनारे श्रीवामनभगवान्‌की प्रतिमाको स्थापिते

करके आप अयोध्यापुरीको लौट जाइये और वहाँसे

परमधामको सिधारिये।' ब्रह्माजीसे आज्ञा पाकर

श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रणाम किया और पुष्पक विमानपर

चढ़कर यहाँसे मधुरापुरीकी यात्रा की। वहाँ पुत्र और

स्नीसहित शत्रुघ्तजीसे मिलकर श्रीरामचन्द्रजी भरत और

सुग्रीवके साथ बहुत सन्तुष्ट हुए। शत्रुघ्नने भी अपने

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» श्रीरामका लङ्का आदि होते हुए गङ्गातटपर भगवान्‌ श्रीवापनकी स्थापना करना +

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भाइयोंकों उपस्थित देख उनके चरणोंमें मस्तक नवाकर

प्रणाम किया । उनके पाँचों अङ्ग (दोनों हाथ, दोनों घुटने

और मस्तक) धरतीका स्पर्श करने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने

भाईको उठाकर छातीसे लगा लिया। तदनन्तर भरत

और सुग्रीव भी झत्रुप्ोसे मिले। जब श्रीरामचन््रजी

आसनपर विराजमान हुए, तब चात्रुघ्नने फुर्तीसे आर्घ्य

निवेदन करके सेना-मन्त्री आदि आठों अज्जॉसे युक्त

अपने राज्यको उनके चरणोंमें अर्पित कर दिया।

श्रीरामचन्द्रजीके आगमनक् समाचार सुनकर समस्त

मथुरावासी, जिनमें ब्राह्मणोंकी संख्या अधिक थी, उनके

दर्शनके लिये आये । भगवानने समस्त सचिवो, वेदके

विद्वानों और ब्राह्मणोंसे बातचीत करके, पाँच दिन

मधथुरामें रहकर वहाँसे जानेका विचार किया। उस समय

श्रीरामने अत्यन्त प्रसन्न होकर दात्रुघ़से कहा--'“तुमने जो

कुछ मुझे अर्पण किया है, वह सब मैने तुम्हें वापस

दिया। अब मधुराके राज्यपर अपने दोनों पुत्रोंका

अभिषेक करो।' ऐसा कहकर भगवान्‌ श्रीराम वहसि

चल दिये और दोपहर होते-होते गड्लातटपर महोदय

तीर्थपर जा पहुँचे। वहाँ भगवान्‌ बामनजीको स्थापित

करके वे ब्राह्मणों एवं भावी राजाओंसे बोले--'यह मैंने

धर्मका सेतु बनाया है, जो ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि

करेवा है। समयानुसार इसका पालन करते रहना

चाहिये । किसी प्रकार इसका उल्लद्बून करना उचित नहीं

है।' इसके बाद भगवान्‌ श्रीराम वानरराज सुग्रीवको

किष्किन्धा भेजकर अयोध्या लौट आये और पुष्पक

विमानसे बोले--'अब तुम्हें यहाँ आनेकी आवश्यकता

नहीं होगी; जहाँ घनके स्वामी कुबेर हैं, वहीं रहना ।'

तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी सम्पूर्ण कार्यौसे निवृत्त हो गये।

अब उन्होंने अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं समझा |

भीष्म ! इस प्रकार मैंने श्रीरामकी कथाके प्रसङ्गसे

भगवान्‌ श्रीवामनके प्राकस्यकी वार्ता भी तुम्हें कह दी ।

------- है चल

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