(| « >> हक ~
भगवान् विष्णुके मन्दिरमें दर्शनके लिये जाते हैं।
उन्हीं हार्थोको सफल समझना चाहिये, जो भगवान्
विष्णुकी पूजामें तत्पर होते हैं। पुरुषोंके उन्हीं
नेत्रोंको पूर्ण: सफल जानना चाहिये, जो भगवान्
जनार्दनका दर्शन करते हैं। साधुपुरुषोंने उसी
जिह्लाकों सफल बताया है, जो निरन्तर हरिनामके
जप ओर कीर्तने लगी रहती है। मैं सत्य कहता
हूँ, हितकी बात कहता हूँ और बार-बार सम्पूर्ण
शास्त्रोंका सार बतलाता हूँ--इस असार संसारमें
केवल श्रीहरिकी आराधना ही सत्य है। यह
संसारबन्धन अत्यन्त दृढ़ है और महान् मोहमें
डालनेवाला है। भगवद्धक्तिरूपी कुठारसे इसको
काटकर अत्यन्त सुखी हो जाओ। वहीं मन
सार्थक है, जो भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगता
है, तथा वे ही दोनों कान समस्त जगत्के लिये
वन्दनीय हैं, जो भगवत्कथाकी सुधाधारासे परिपूर्ण
रहते हैं। नारदजी ! जो आनन्दस्वरूप, अक्षर एवं
जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओंसे रहित तथा हृदयमें
विराजमान हैं, उन्हीं भगवान्का तुम निरन्तर
भजन करो। मुनिश्रेष्ट! जिनका अन्तःकरण शुद्ध
१३१
नहीं है--ऐसे लोग भगवानके स्थान या स्वरूपका न
तो वर्णन कर सकते हैं और न दर्शन ही। विप्रवर
यह स्थावर-जंगमरूप जगत् केवल भावनामय है
और बिजलीके समान चञ्चल है। अतः इसकी
जसे विरक्त होकर भगवान् जनार्दनका भजन करो।
जिनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह विद्यमान हैं, उन्हींपर जगदीश्वर श्रीहरि
संतुष्ट होते हैं| जो सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव
रखता है और ब्राह्मणोंक आदर-सत्कारमें तत्पर
रहता है, उसपर जगदीश्वर भगवान् विष्णु प्रसन्न
होते हैं। जो भगवान् और उनके भक्तोंकी कथामें
प्रेम रखता है, स्वयं भगवानकी कथा कहता है,
साधु-महात्माओंका संग करता है और मनमें अहङ्कर
नहीं लाता, उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न रहते हैं। जो
भूख-प्यास और लड़खड़ाकर गिरने आदिके अवसरोंपर
भी सदा भगवान् विष्णुके नामका उच्चारण करता है,
उसपर भगवान् अधोक्षज (विष्णु) प्रसन्न होते हैं।
मुने! जो स्त्री पतिको प्राणके समान समझकर उनके
आदर-सत्कारमें सदा लगी रहती है, उसपर प्रसन्न हो
जगदीश्वर श्रीहरि उसे अपना परम धाम दे देते हैं।
जो ईर्ष्या तथा दोषदृष्टिसे रहित होकर अहङ्कारे दूर
रहते हैं और सदा देवाराधन किया करते हैं, उनपर
भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं। अतः देवर्षे! सुनो, तुम
सदा श्रीहरिका भजन करो। शरीर मृत्युसे जुड़ा हुआ
है। जीवन अत्यन्त चञ्चल है। धनपर राजा आदिके
द्वारा बराबर बाधा आती रहती है ओर सम्पत्तियाँ
क्षणभरमें नष्ट हो जानेवाली हैं। देवर्षे ! क्या तुम नहीं
देखते कि आधी आयु तो नींदसे ही नष्ट हो जातौ है
और कुछ आयु भोजन आदियमें समाप्त हो जाती है।
आयुका कुछ भाग बचपनमें, कुछ विषय-भोगोंमें
और कुछ बुढ़ापेमें व्यर्थ बीत जाता है। फिर तुम
धर्मका आचरण कब करोगे? बचपन और बुढ़ापेमें
भगवान्को आराधना नहीं हो सकती, अत: अहङ्कार