भूमिखण्ड ]
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और प्रलूयसे रहित हैं।
पिप्पलने पूछा--ब्रह्मनू! मातल्की वाते
सुनकर नहुषपुत्र राजा ययातिने क्या किया ? इसका
विस्तारके साथ वर्णन कीजिये ।
सुकर्मा बोले--विप्रवर ! सुनिये, उस समय
सम्पूर्ण धर्मात्माओमें शरषठ नृपवर ययातिने मातलिसे इस
प्रकार कहा--'देवदूत ! तुमने स्वर्गका सारा गुण-
अवगुण मुझे पहले ही बता दिया है। अतः अब मैं शरीर
छोड़कर स्वर्गलोकमें नहीं जाऊँगा। देवाधिदेव इन्द्रसे
तुम यही जाकर कह देना । भगवान् इषीकेशके नामोंका
उच्चारण ही सर्वोत्तम धर्म है। मैं प्रतिदिन इसी रसायनका
सेवन करता हूँ। इससे मेरे रोग, दोष और पापादि नष्ट
हो गये हैं। संसारे श्रीकृष्णका नाम सबसे बड़ी ओषध
है। इसके रहते हुए भी मनुष्य पाप और व्याधियोंसे
पीड़ित होकर मृत्युको प्राप्त हो रहे हैं--यह कितने
आश्चर्यकी बात है। लोग कितने बड़े मूर्ख हैं कि
श्रीकृष्ण-नामका रसायन नहीं पीते ।# भगवान्की पूजा,
ध्यान, नियम, सत्य-भाषण तथा दानसे वारीरकी शुद्धि
होती है। इससे गेग और दोष नष्ट हो जाते हैं। तदनन्तर
भगवानके प्रसादसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है । इसलिये मैं
अब स्वर्गल्लोकको नहीं चरैगा । अपने तपसे, भावसे
और धर्माचरणके द्वारा भगवत्-कृपासे इस पृथ्वीको ही
स्वर्ग बनाऊँगा। यह जानकर तुम यहाँसे जाओ और
सारी बातें इन्द्रसे कह सुनाओ ।'
राजा ययातिकी यह बात सुनकर मातलि चले गये ।
उन्होंने इन्द्रसे सब बातें निवेदन कीं । उन्हें सुनकर इन्द्र
पुनः राजाको स्वर्गमें लानेके विषयमे विचार करने लगे ।
पिप्पलने पूछा--ब्रह्मन् ! इन्द्रके दूत महाभाग
मातलिके चले जानेपर धर्मात्मा ययातिने कौन-सा
कार्य किया ?
सुकर्मा बोले-- विप्रवर ! देवराजके दूत मातलि
जब चले गये, तब राजा ययातिने मन-ही-मन कुछ
मातल्िके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन
विचार किया और तुरंत ही प्रधान-प्रधान दूतोंकों
बुसपरकर उन्हें धर्म और अर्थसे युक्त उत्तम आदेश
दिया--'दूतो ! तुमल्लेग मेरी आज्ञा मानकर अपने और
दूसरे देशॉमें जाओ; तुम्हारे मुखसे वहाँके सब लोग मेरी
धर्मयुक्त बात सुनें और सुनकर उसका पालन करें।
जगत्के मनुष्य परम पवित्र ओर अमृतके समान
सुखदायी भगवत्-सम्बन्धी भावोंद्वारा उत्तम मार्गका
आश्रय ले। सदा तत्पर होकर शुभ कर्मो अनुष्ठान,
भगवत्ततत्वका ज्ञान, भगवान्का ध्यान और तपस्या करें ।
सब ल्मेग विषयोका परित्याग करके यज्ञ और दानके
द्वारा एकमात्र मधुसूदनका पूजन करें। सर्वत्र सूखे और
गीलेमें, आकाश और पृथ्वीपर तथा चराचर प्राणियों
केवल श्रीहरिका दर्शन करें । जो मानव ल्त्रेभ या मोहवश
स्त्रेकमें मेरी इस आज्ञाका पालन नही करेगा, उसे निश्चय
ही कठोर दण्ड दिया जायगा। मेरी दृष्टिमें वह चोरकी
भाँति निकृष्ट समझा जायगा।'
राजाके ये वचन सुनकर दूतौका हृदय प्रसन्न हो
गया। वे समूची पृथ्वीपर घुम-घूमकर समस्त प्रजाको
महाराजका आदेश सुनाने लगे--'“ब्राह्मणादि चारों
कणेकि मनुष्यो ! राजा ययातिने संसारमें परम पवित्र
अमृत ला दिया है । आप सब ल्त्रेग उसका पान करें।
उस अमृतका नाम है---पुण्यमय वैष्णव धर्म । वह सब
दोषोंसे रहित और उत्तम परिणामका जनक है । भगवान्
केशव सबका छ्लेश हरनेवाले, सर्वश्रेष्ठ, आनन्दस्वरूप
और परमार्थ-तत्त्व हैं। उनका नाममय अमृत सब
दोषोंको दूर करनेवाला है। महाराज ययातिने उस
अमृतको यहीं सुरूध कर दिया है। संसारके लोग
इच्छानुसार उसका पान करें। भगवान् विष्णुकी नाभिसे
कमल प्रकट हुआ है। उनके नेत्र कमलके समान सुन्दर
है । वे जगत्के आधारभूत ओर महेश्वर हैं। पापोंका नाडा
करके आनन्द प्रदान करते है । दानयो और दैत्योंका
संहार करनेवाले हैं। यज्ञ उनके अङ्गस्वरूप हैं, उनके
# विद्यमाने हि संसारे कष्णनान्नि पहैषधे । मानवा मरौ यान्ति पापच्याधिपरपीडिताः ।
न पिबन्ति महामूछा: कृष्णनापरसायनम् ॥ (७२ ॥ १८)