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उत्तरपर्व ]

* सशगुलीया नकः माहात्यं +

२९१

गङ्गा आदि नदिरयोमिं स्नान कर शिव-पार्वतीका ध्यान करती हुई

यह मन्त्र पढ़े और भगवान्‌ इकरकी अर्ध्गिनी भगवती

(उत्तष्पवं २३। १२)

"भगवती उमाको अपने आधे भागमें धारण करनेवाले हे

देवदेवेश्वर भगवान्‌ ईौकर ! आपको बार-आर नमस्कार है।

महादेवि ! भगवती पार्वती ! आप भगवान्‌ शंकरके आधे

शरीरमें निवास करनेवाली है, आपको नमस्कार है।'

पुनः घर आकर दारीरकी शुद्धिके लिये पश्चगव्य-पान करे

और प्रतिमाके दक्षिण भागमें भगवान्‌ झैकर और चाम भागमें

भगवती पार्वतीकी भावना कर गन्ध, पुष्प, गुग्गुल, धूप, दीप

और घीमें पकाये गये नैवेच्योंसे भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करे ।

इसी प्रकार बारह महीनेतक पूजनकर प्रसन्नचित्त हो व्रतका

उद्यापन करें। भगवान्‌ इैकरकी चीकी तथा भगवती

पार्वतीकी सुवर्णकी मूर्ति बनवाकर दोनोंको चाँदीके वृषभपर

स्थापित कर वख्लाभूषणोंसे अलंकृत करे । अनन्तर चन्दन, श्रेत

पुष्प, शेत वस्र आदिसे भगवान्‌ शंकस्की और कुंकुम, रक्त

वस्त्र, रक्त पुष्प आदिसे भगवती पार्वतीकी पूजा करनी

चाहिये । फिर शिवभक्त वेदपाठी, शान्तचित्त ब्राह्मणको भोजन

कराना चाहिये। सभीको दक्षिणा देकर उनकी प्रदक्षिणा करके

यह मन्त्र पढ़ना चाहिये--

उमापहेश्वरौ ठेवो... सर्वल्लोकपितापहौ |

व्रतेनानेन सुप्रीतौ भवेतौ मम सर्वदा ॥

(उत्तरपर्ष २३।२१)

"सभी लोकोके पितामह भगवान्‌ शिव एवं पार्वती मेरे

इस व्रतके अनुष्ठानसे मुझपर सदा प्रसन्न रहें।'

इस प्रकार प्रार्थना करके क्रोधरहित ब्राह्मणको सभी

सामग्रियाँ देकर ब्रतको समाप्त करें। इस ब्रठको जो खी

भक्तिपूर्वक करती है, वह झिवजीके समीप एक कल्पतक

निवास करती है। तदनन्तर मनुष्य-लोकमें उत्तम कुलमें जन्य

ग्रहणकर रूप, यौवन, पुत्र आदि सभी पदा्थौको प्राप्त कर

बहुत दिनौतक अपने पतिके साथ सौसारिक सुखोको भोगती

है, उसका अपने पतिसे कभी वियोग नहीं होता और अन्तमें

वह शिव-सायुज्य प्राप्त करती है। (अध्याय २३)

रम्भातृतीया-ब्रतका माहात्म्य

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--राजन्‌ ! अब मैं सभी

पापोके नाशझक, पुत्र एव॑ सौभाग्पप्रद्‌ सभी व्याधियोंकि

उपशामक, पुष्य तथा सौख्य प्रदान करनेखाले रम्भातृतीया-

ब्रतका वर्णन करता हँ । यह व्रत सपल्नियोंसे उत्पन्न करेदाका

इापक तथा ऐश्वर्यको प्रदान करनेवाला है । भगवान्‌ दौकरने

देवी पार्वतीकी प्रसन्रताके लिये इस ब्रठकी जो विधि बतत्त्रयी

थी, उसे ही मैं कहता हूँ।

श्रद्धालु स्त्री मार्गशीर्ष मासके शुकू पक्षकी तृतीया

तिथिको प्रात: उठकर दन्तधावनं आदिसे निवृत्त हे भक्तिपूर्वक

उपयवासका नियम ग्रहण करें। वह सर्वप्रथम ब्रत-ग्रहण

करनेके लिये देवीसे इस प्रकार प्रार्थना करें--

तदविध्नेन मे यातु असादात्‌ तव पार्वति ॥

(उत्तरपर्व २४।५५)

"देवि ! मैं पूरे एक वर्षतक इस तृतीया-व्रतका आचरण

और दूसरे दिन पारणा करूँगी। आप ऐसी कृपा करें, जिससे

इसमें कोई विघ्न न उत्पन्न हो।'

इस प्रकार स्त्री या पुरुष ब्रतका संकल्प करे और मनमें

ब्रतका निश्चय कर सावधानी बर्तते हुए नदी, तालाब अथवा

घरमें खान करे। तदनन्तर देवी पार्वतीका पूजन कर सत्रिमें

कुशोदकका प्राशन करें। दूसरे दिन प्रातःकाल विद्वान्‌

शिवभक्त ब्राह्मणो भोजन कराये और दक्षिणाके रूपमें

सुवर्णं एवं लवण प्रदान करे। यथाशक्ति गौरीश्वर भगवान्‌

दिवको प्रयत्रपूर्वक भोग निवेदित करे ।

राजन्‌ ! पौष मासकी तृतीयामें इसी विधिसे उपवास एवं

पूजनकर रात्रिमें गोमूत्रका परादान कर प्रभातकालमे ब्राह्मणको

भोजन कराये और दक्षिणाके रूपमे उन्हें अपनी शक्तिके

अनुसार सोना तथा जीरक दे । इससे वाजपेय तथा अतिरात्र

यज्ञोका फल प्राप्त होता है और वह कल्पपर्यन्त इन्द्रलोके

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