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काण्ड-७ सूक्त-११० ४१

[ १०६ - दुःस्वप्ननाशन सूक्त (१०१) ]

[ ऋषि- यम । देवता- दुः्वणनाशन । छन्द अनुष्टुप्‌ ।]

१९९७. यत्‌ स्वप्ने अन्नमश्नामि न प्रातरधिगम्यते ।

सर्वं तदस्तु मे शिवं नहि तद्‌ दृश्यते दिवा ॥९॥

हमने स्वप्न मे जो अत्न खाया है, उसका प्रात: जागने पर कोई बोध नहीं होता और वे दिन में दिखाई नहीं

देते फिर भी वे सव हमारे लिए कल्याणकारी हों ॥१ ॥

[ स्वरो में मिले स्थूल पदार्थ निरर्थक होते हैं; क्योंकि उनका यथा जीवन में कोई उपयोग नहीं होता, फिर भी स्वनो

में प्राप्त सूक्षम प्रेरणाएँ एवं संस्कार आदि कल्याणप्रद हो सकते है । ]

[ १०७ - आत्मन -अहिंसन सूक्त (१०२) |

[ ऋषि- प्रजापति । देवता- द्यावापृथिवी, अन्तरिक्ष मृत्यु । छन्द- विराट्‌ पुरस्तात्‌ वृहती ।]

१९९८. नपस्कृत्य द्यावापृथिवीभ्यामन्तरिक्षाय मृत्यवे ।

प्रेक्षाम्यूध्वस्तिष्ठन्‌ मा मा हिंसिषुरी श्वरा: ॥९॥

हम धाावा-पृथिवी, अन्तरिश्च एवं मृत्यु को नमस्कार करते हैं । इनके स्वामी अग्नि, वायु और सूर्यदेव सहित

मृत्यु हमारा वध न करे, हम दीर्घकाल तक इसी लोक में रहें ॥१ ॥

[ १०८ - क्षत्रिय सूक्त (१०३) ]

[ऋषि- प्रजापति । देवता- ब्रह्मात्मा । छन्द- त्रिप्टप्‌ ।]

१९९९. को अस्या नो दहो 5वच्यवत्या उन्नेष्यति क्षत्रियो वस्य इच्छन्‌।

को यज्ञकामः क उ पूर्तिकापः को देवेषु वनुते दीर्घमायुः ॥१ ॥

परस्पर द्रोह वृति रूपी, इस निंदनीय दुर्गति रूपी पिशाचिनी से हमें कौन वचाएगा ? इस यञ्-अनुष्छन की

पूर्णता की कामना करने वाला कौन है ? हमे धन-ऐश्वर्य कौन देगा ? हमे दीर्घायुष्य कौन देवता प्रदान करता है ? ॥१ 4

[ जीवन के सहज क्रम में सामने आने वाले विकारों-अवगेयों के निवारण की प्रवल इच्छा होनी चाहिए । उसी आधार पर

उपजी इच्छाशक्ति उनके निवारण के स्रोत खोज लेती है । ]

[ १०९ - गौ सूक्त (१०४) ]

[ ऋषि- प्रजापति । देवता- ब्रह्मात्मा । छन्द- त्रिष्टप्‌ ।]

२०००. कः पृर्श्नि धेनुं वरुणेन दत्तामथर्वणे सुदुघां नित्यवत्साम्‌।

बृहस्पतिना सख्यं जुषाणो यथावशं तन्वः कल्ययाति ॥९॥

अथर्वा ने वरुणदेव को, विविध वर्णो की, सुखपूर्वक दुग्ध देने वाली, वछड़ेसहित गौएँ प्रदान कीं । वृहस्पति

देव के मित्र प्रजापतिरेव इन गौ ओं को सब प्रकार से स्वस्थ रखें ॥१ ॥

[११० - दिव्यवचन सूक्त (१०५) |]

[ ऋषि- अथवा । देवता- मन्ोक्त । छन्द- अनुष्टुप्‌ ।]

२००१. अपक्रामन्‌ पौरुषेयाद्‌ वृणानो दैव्यं वचः ।

प्रणीतीरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह ॥१ ॥

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