* अध्याय १६०५
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होते है । “प्रजापति” नामक संवत्सरे वृद्धि होती
है। " अङ्गिरा" संवत्सर भोगोंकी वृद्धि करनेवाला
है । श्रीमुख संबत्सरमें जनसंख्याकी वृद्धि होती
है और 'भाव' संज्ञक संवत्सरमे प्राणियोमें
सद्भावकी वृद्धि होती है। “युवा संवत्सरमें मेष
प्रचुर वृष्टि करते हैं। 'धाता' संवत्सरे समस्त
ओषधियाँ बहुलतासे उत्पन्न होती है । ' ईश्वर '
संवत्सरे क्षेम ओर आरोग्यकी प्राति होती है।
"बहुधान्य ' में प्रचुर अन्न उत्पन्न होता है । ' प्रमाथी '
वर्ष मध्यम होता दै । “ विक्रम "मेँ अन्न-सम्पदाकी
अधिकता होती है। ' वृष" संवत्सर सम्पूर्ण
प्रजाओंका पोषण करता है । "चित्रभानु ' विचित्रता
और ' सुभानु" कल्याण एवं आरोग्यको उपस्थित
करता है। ' तारण' संवत्सरे मेघ शुभकारक
होते हैं ॥ १--५॥
"पार्थिव" में सस्य- सम्पत्ति, ' अव्यय ' मेँ अति-
वृष्टि, " सर्वजित्" में उत्तम वृष्टि और * सर्वधा '
नामक संवत्सरे धान्यादिकी अधिकता होती है ।
मन्मथ' में
रोगोंका मर्दन करनेवाला है।
विश्व ज्वरसे पीड़ित होता है। ' दुष्कर "मे प्रजा
दुष्कर्ममें प्रवृत्त होती है। ' दुर्मुख' संवत्सरमें मनुष्य
कटुभाषौ हो जाते हैं। 'हेमलम्ब' से सम्पत्तिकी
प्राप्ति होती है। महादेवि! 'विलम्ब” नामक
संवत्सरमें अन्नकी प्रचुरता होती है। “विकारी
शत्रुओंको कुपितं करता है और “शार्वरी'
कहीं-कहीं सर्वप्रदा होती है। “प्लव ' संवत्सरमें
जलाशयोंमें बाढ़ आती है। 'शोभन' और “शुभकृत्'
में प्रजा संबत्सरके नामानुकूल गुणसे युक्त होती
है॥ ६--१०॥
'राक्षस' वर्षमे लोक निष्ठर हो जाता है।
"आनल" संवत्सरमें विविध धान्योंकी उत्पत्ति होती
है। "पिङ्गल! कहीं-कहीं उत्तम यृष्टि और
“कालयुक्त' में धनहानि होती है। “सिद्धार्थ में
सम्पूर्ण कार्योंकी सिद्धि होती है। “रौद्र' वर्षमे
विश्वमे रौद्रभावोंकी प्रवृत्ति होती है। "दुर्मति"
संवत्सरमें मध्यम वर्षा ओर “दुन्दुभि'में मङ्गल
"विरोधी" मेघोंका नाश करता है अर्थात् | एवं धन-धान्यकी उपलब्धि होती है। ' रुधिरोद्गारी'
अनावृष्टिकारक होता है। “विकृति' भय प्रदान
करनेवाला है। 'खर' नामक संवत्सर पुरुषोंमें
शौर्यका संचार करता है। 'नन्दन' ये प्रजा आनन्दित
होती है। “विजय ' संवत्सर शत्रुनाशक और 'जय!'
और 'रक्ताक्ष' नामक संवत्सर रक्तपान करनेवाले
हैं। ‹ क्रोधन" वर्ष विजयप्रद है। 'क्षय' संवत्सरमें
प्रजाका धन क्षीण होता है। इस प्रकार साठ संवत्सरों
(मेंसे कुछ)-का वर्णन किया गया है॥ ११--१३॥
इस प्रकार आदि आप्नेय महापुराणमें "साठ संवत्सरों (मेंसे कृ) -के नाम एवं उनके
फ़ल- भेदका कथत” नामक एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १३९ #
व
एक सौ चालीसवाँ अध्याय
वश्य आदि योगोंका वर्णन
भगवान् महेश्वर कहते है - स्कन्द ! अब मैं | (लताविशेष), विष्णुक्रान्ता ( अपराजिता), श्रेतार्क
वशीकरण आदिके योगोंका वर्णन करणा । निम्नाङ्कित | (सफेद मदार), लज्जालुका (लाजवन्ती लता),
ओषधिर्योको सोलह कोष्ठवाले चक्रे अङ्कित | मोहलता (त्रिपुरमाली), काला धतूरा, गोरक्षकर्कटी
करे भृङ्गराज ( भँगरैया), सहदेवी (सहदेइया),
(गोरखककडी या गुरुम्ही ), मेषशृङ्गी (पेदासिंगी)
मोरकौ शिखा, पुत्रजीवक (जीवापोता) नामक | तथा स्ुहौ (सेंहुड)॥ १--३॥
वृक्षकी छाल, अधःपुष्पा (गोझिया), रुदन्तिका
(रुद्रदन्ती), कुमारी. (घीकुँआर),
ओषधियोंके ये भाग प्रदक्षिण-क्रमसे ऋत्विज्
रुद्रजटा | १६, वहि ३, नाग ८, पक्ष २, मुनि ७, मनु १४,