२४ अश्यवेद संहिता भाग-२
५१९४. इन्द्रेण रोचना दिवो दृढानि दृंहितानि च । स्थिराणि न पराणुदे ॥३ ॥
अन्तरिक्ष मे स्थित सभी प्रकाशवान् नक्षत्रों को इद्धदेव ने सुदृढ़ तथा समृद्ध किया । उन नक्षत्रों को कोई भी
उनके स्थान से च्युत नहीं कर सकता ॥३ ॥
५१९५. अपामूर्मिर्मदन्निव स्तोम इन्द्राजिरायते । वि ते मदा अराजिषुः ॥४ ॥
हे इनद्रदेव ! जिस प्रकार समुद्र की लहरें उछलती चलती हैं, उसी प्रकार आपके लिए की गई प्रार्थनाएँ
शीघ्रता से पहुँचकर, आपके उत्साह को बढ़ाती हैं ॥४ ॥
[ सूक्त- २९ ]
[ ऋषि- गोषुक्ति ओर अश्वसूक्ति । देवता- इन्द्र | छन्द्- गायत्री ।]
५१९६. त्वं हि स्तोपवर्धन इन्द्रास्युक्थवर्धन: | स्तोतृणामुत भद्रकृत् ॥१ ॥
हे इनदरदेव ! आप स्तोत्रों तथा स्तुतियों से सन्तु समृद्ध होते हैं । आप स्तुतिकर्त्ताओं के लिए हितकारी हैं
५१९७. इन्द्रमित् केशिना हरी सोमप्रेयाय वक्षतः | उप यज्ञं सुराधसम् ॥२ ॥
बालों से युक्त दोनों अश्व श्रेष्ठ ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव को सोम पीने के लिए यज्ञ मण्डप के समीप ले जाते हैं
५१९८. अपां फेनेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः । विश्वा यदजय स्पृधः ॥३ ॥
इन्द्रदेव ने नमुचि (मुक्त न करने वाते असुर या आसुरी प्रवृत्ति) के सिर को अप् (जल या प्राण प्रवाह) के फेन
(उफान-शक्ति) से नष्ट कर दिया ॥३ ॥
५१९९. मायाभिरुत्सिसृप्सत इनदर द्यामारुरुक्षतः | अव दस्यूंरभूनु थाः ॥४ ॥
हे इन्द्रदेव ! आप अपनी माया के द्वारा सर्वत्र विद्यमान है । आपने द्युलोक में बढ़ने वाले दस्युओं (वतर, अहि
आदि) को नीचे धकेल दिया ॥४ ॥
५२००. असुन्वाभिन्द्र संसदं विधू्चीं व्य नाशय:। सोमपा उत्तरो भवन् ॥५॥
हे इन्द्रदेव ! आप सोमपान करने वाले तथा महान् हैं। सोमयज्ञ न करने वाले (स्वार्थी) मनुष्यों के संगठन
को आपस में लड़ाकर, आपने विनष्ट कर दिया ॥५ ॥
[ सूक्त- ३० |
[ ऋषि- वरु अथवा सर्वहरि । देवता- हरि (इन्द्र) । छन्द जगती ।]
५२०१. प्र ते महे विदथे शंसिषं हरी प्र ते वन्वे वनुषो हर्यतं मदम् ।
धृतं न यो हरिभिश्चारु सेचत आ त्वा विशन्तु हरिवर्पसं गिरः ॥१ ॥
हे इन्द्रदेव ! आपके दोनों घोड़ों की, इस महायज्ञ में हम अर्चना करते है । आपके सेवनीय प्रशंसा- योग्य
उत्साह की हम कामना करते है । जो हरि (हरणजौल सूर्यादि) के माध्यम से घृत (तेज अथवा जल) सिचित करते
है एमे मनोहारी इनद्रदेव के समीप हमारे स्तोत्र पहुँचें ॥१ ॥
५२०२. हरिं हि योनिमभि ये समस्वरन् हिन्वन्तो हरी दिव्यं यथा सदः।
आ यं पृणन्ति हरिभिर्न धेनव इन्द्राय शुषं हरिवन्तमर्चत ॥२ ॥