* अक्वूरका नन्दगाँवमें जाना, श्रीयम-कृष्णकी मथुरा-यात्रा * २९९
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द्र, अश्विनीकुमार, वसु, आदित्य तथा मरुद्रण | करनेपर मनुष्य पूर्ण कल्याणका भागी होता है,
जिनके स्वरूपको नहीं जानते, वे श्रीहरि आज | उन पुरुषश्रेष्ठ श्रीहरिकी मैं सदाके लिये शरण
मेश स्पर्श करेंगे। जो सर्वात्मा, सर्वव्यापी, सर्वस्वरूप, | लेता हूँ।*
सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित, अव्यय एवं व्यापौ परमात्मा | अक्रूरका हदय भक्तिसे विनम्र हो रहा था। वे
हैं, ये ही आज मेरे नेत्रोकि अतिथि होगे । जिन्होंने इस प्रकार श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए कुछ
अपनी योगशक्तिसे मत्स्य, कर्म, वराह और | दिन रहते नन्दरगाँवमें पहुँच गये। वहाँ उन्होंने
नरसिंह आदि अवतार ग्रहण किये थे, वे ही | भगवान् श्रीकृष्णको उस स्थानपर देखा, जहाँ गौएँ
भगवान् आज मुझसे वार्तालाप करेगे । स्वेच्छासे | दुही जा रही थी । वे बछड़ोंके बीचमें खड़े थे।
शरीर धारण करनेवाले अविनाशी जगन्नाथ इस | उनका श्रीअङ्गं विकसित नौलकमलकी आभासे
समय कार्यवश त्रजमे निवास करनेके लिये | सुशोभित था। नेत्र खिले हए कमलकी शोभा
हौ जगत्का हित करनेके लिये अवतीर्णं हो आज | उभरी हुई छाती, ऊँची नासिका, विलासयुक्त
मुझे " अक्रूर ' कहकर बुलायेंगे। पिता, पुत्र, सुद्, | मुसकानसे सुशोभित मुख, लाल-लाल नख,
भ्राता, पाता और बन्धु-वान्धवरूपिणी जिनकी | शरीरपर पीताम्बर, गलेमें जंगली पुष्पोकि हार,
मायाको यह जगत् हटा नहीं पाता, उन भगवान्को | हाथमे लिग्ध नील लता ओर कानमे श्वेत
बारंबार नमस्कार है। जिनको हदये स्थापित | कमलपुष्पके आभूषण-- यही उनकी झाँकी थी।
करके मनुष्य इस योगमायारूप फैली हुई अविद्याको | उनके दोनों चरण भूमिपर विराजमान धे । श्रीकृष्णका
तर जाते हैं, उन विद्यास्वरूप परमात्माको नमस्कार | दर्शन करनेके बाद अक्रूरजीकी दृष्टि यदुनन्दन
हि । जिन्हें यज्ञपरायण मनुष्य यज्ञपुरुष, भगवद्धक्त- | बलभद्रजौपर पड़ी, जो हंस, चन्द्रमा और कुन्दके
जन वासुदेव और वेदान्तवेत्ता सर्वव्यापी श्रीविष्णु | | समान गौरवर्ण थे। उनके शरीरपर नील वस्त्र
कहते हैं, उनको मेरा नमस्कार है। जो सम्पूर्ण | शोभा पा रहे थे। उनकी कद ऊँची ओर बहि
जगत्के निवासस्थान हैं, जिनमें सत् और असत् | बड़ी-बड़ी थीं । मुख प्रफुल्ल कमल-सा सुशोभित
दोनों प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान् अपने सहज | था। नीलाम्बरधारी गौराङ्ग बलभद्रजी ऐसे जान
सत्वगुणसे मुझपर प्रसन्न हो । जिनका स्मरण | पड़ते थे, मानो मेघमालासे घिरा हुआ दूसरा
* न॒ ब्रह्मा नेन्ररद्राश्चिवस्वादित्यमश्दरणाः । यस्य स्वरूपं जानन्ति स्पृशत्यध्य स मे हरिः॥
सर्वत्मा सर्वगः सर्वः सर्वभूतेषु संस्थितः। यो भवत्यव्ययौ व्यापी स वक्ष्यते मयाऽद्य ह॥
मत्स्यकूर्मवराहाच्ैः सिंहरूपादिभिः स्थितम् । चकार योगतो योगं स ॒मामालापयिष्यति ॥
सांप्रतं च जगत्स्वामी कार्यजाते व्रजे स्थितिम् । कतुं मनुष्यतां प्राप्त: स्वेच्छादेहधृगव्ययः॥
योऽनन्तः पृथिवीं धत्ते शिखरस्थितिसंस्थिताम्। सोऽवतीौर्णो जगत्यर्थे मामक्ररेति वक्ष्यति ॥
पितृबन्धुसुहद्भातृमातृबन्धुमवौमिमाम् । यन्मायां नालमुद्धतुं जगत्तस्य नमो नमः॥
तल्त्यविचचां विततां हदि यस्मिन्निवेशिते । योगमायामिमां मरत्यस्तिस्मै विद्यात्मने नमः:॥
यज्वभिर्यचपुरुषो वासुदेवश्च सात्वतै:। वेदान्तवेदिभिर्विष्णुः प्रोच्यते यो नतोऽस्मि तम् ॥
तथा यत्र जगद्धाप्नि धार्वते च प्रतिष्ठितम् । सदसस्वं स तत्त्वेन मय्यसौ यातु सौम्यताम् ॥
स्यूते सकलकल्याणभाजनं यत्र॒ जायते । पुरुषप्रवरं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥
(१९१। ८-१७)