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चा्ैव-चरित्र (२) | [ ३६०३

तथैव रामोऽपि मनोनिलौजा विमद यामास

नृपस्य सेनाम्‌ ।१४१

हृष्ट वा ममिस्थं प्रररंतमोजसा रामं रणे शस्त्रभृतां वरिष्ठम्‌ ।

उद्यम्य चापं महदास्थितो रथं सज्यं च कृत्वा

किलं मत्स्यराजः ॥।४२

परशुराम ने श्रेष्ठ नृप कात्तां वीर्याजुन को देखा था जो सौ करोड़

राजाओं के साथ संयुत था और सहस्र अक्षौहिणी सेनाए भी उसके साथ

थीं--ऐसे विशाल समुदायों को देखकर परशुराम मन में बहुत ही प्रसन्न

हुए थे। हर्षातिरेक का कारण यही था कि जब मेदिनी को क्षत्रियों से हीन

ही करना है तो इस समय में एक ही साथ बहुत से क्षत्रिय समागत हो गये.

हैँ ।३६। परशुराम ने अपने मन में विचार किया कि बहुत समय से चाहा

हुआ मेरा कायं आज सिद्धि को प्राप्त हुआ दै कि यह महान्‌ अधम नृप कात्त

वीयं मेरी हष्टि के सामने आ ग्रया है।३७। अपने मन में यहु कहकर वह

वहाँ से उठकर खड़े हो गये थे और अपने आयुध परशू को धारण कर

लियाथा। फिर अपने शत्रू के विनाश करने के लिए परशुराम ने गजना

की थी जिस तरह सेक्रद्ध हआ सिंह गर्जा करता है ।३८। फिर समस्त

है ।३८। फिर समस्त सैनिकों के बध करने-के लिए समुकृत हुए परश्‌.राम

को देखकर सभी मृत्यु से शरीर धारियों के हो समान बहुत ही अधिक कपि

गये थे ।३६। उन महानीर परश राम ने रोष से युक्त होकर जहाँ-जहाँ पर

अपने परश्‌. को फैंककर प्रहार किया था जो कि वायु के बेग के ही समान

किया गया था वहाँ-वहाँ पर ही कटे हुए बाहु-वक्ष:स्थल और गरदन बाले

करी-अश्व और शूर वीर मनुष्य मरकर भूमि पर भिर गये थे ।४०/ जिस

तरह से भद्व से यत्त कोई गजेन्द्र दौड़ लगाता हुआ नाल वनका मर्दन कर

दिया करता है ठीक उसी भाँति से परशुराम ने भी मत और वायु के सहश

ओज से युक्त होकर उस नृप की सेना का मदेन कर कर दिया था ।४१। उस

रणस्थल में इस रीति से अपने ओज के द्वारा प्रहार करते हुए शस्त्रधारियों

में परमश्च परशुराम को देखकर मत्स्यराज नामक राजा ने अपने धनुष

को उठाया था तथा फिर कह अपने जिशाल रथ पर सजास्थित हो गया

था ।४२। $

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