परिशिष्ट-९ १.१९
का पुत्र कहा जाता है । इन्हें अनेक सक्तो का दरष्टा कहा गया है (ऋग्वेद ७. १-३२-३३,१०३; ९. ६७. १९-३२,
साम० २४, २६, ३८, ४५ आदि) ।
१४२.वसुकृत्-वासुक्र (३३४) - वसुकृत् ऋषि का वर्णन सामवेद् तथा ऋग्वेद में प्त होता है । इन्हें वसुक्र
का पुत्र कहा गया है-- प्राजापत्य ऐन्द्रो वा विमदो वा वासुक्रो वसुकदर्षिः (० १०. २५ सा०भा०); वसुक्र
पत्रो वसुकृदाख्यो वा (कऋ० ६०. २० सार भा०) |
९४३.वसुश्रुत आत्रेय (४१९, ४२५) - अत्रैव गोत्र का नाम है । आत्रिय गोत्रीय वसुश्रुत ऋषि सामवेदीय
मंत्रों के द्रष्टा कहे गये हैं-- तृतीयं सुक्तमत्रेयस्य वसुश्रतस्या् त्रैष्टुभमागनेयं । त्वमग्ने वसुश्रुत इत्यनुक्रान्तम्
(ऋ० ५. ३ सार भा०) |
१४४.वसूयव आत्रेय (८६) - वेदों मे वसूयु नाम वाले अनेक ऋषियों का वर्णन शाप्त होता है, जिन्हें इस मण्डल
में अनुक्त गोत्रीय होने के कारण अग्रिय कहा जाता है--पंचमे मंडलेऽनुक्तगोत्रमत्रेयं विद्यात् (%० ५.१सा०
भा०) । कुछ स्थलों पर इन ऋषियों को धनेच्छुक कहा गया है- वसूयवो वसुकामा वयम् -- (ऋ ५. २५. ९
सा०भा०) । यजुर्वेद में भी कुछ मंत्रों के दरष्टा इन्दे ही माना गया है ।
१४५.वामदेव गौतम (१०, १२, २३, ३०,६९ आदि) - ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के ऋषि के रूप में
वामदेव का नाम आता है-- चतुर्थ सूक्त॑ वापदेवस्यारषम्...(ऋ०४. ४ सा० भा०); गौतम ऋषि को
वामदेव का पिता कहा गया है-मा पितुर्गोतमादन्वियाय --(ऋ%० ४.४. ११); वामदेव को जन्म के पूर्व से ही
ज्ञानी होना बताया गया है ।
१४६.विभ्राट् सौर्य (६२८) - ऋग्वेद के १०.१७० सूक्त के देवता सूर्य हैं तथा इसके ऋषि विध्राट सौर्य हैं।
सायण ने इनके ऋषित्व पर प्रकाश डाला है- विश्राट् विभ्राजमानो विशेषेण दीप्यमानः सूयों...। विध्राद्
विभ्राजमानं ... ज्योततिः सौरं तेजो जज्ञे प्रादर्भवाति (#० १०.१७०.१-२सा० भा०); सामवेद् में इसी सूक्त के तीन
मन्त्र संकलित हैं, जिनके ऋषि यही विध्राट् सौर्य हैं।
१४७.विमद रन्द्र (४२०, ४२२) - विमद को ऋग्वेदीय मंत्रों का द्रष्टा कहा गया है--नोथस्वगस्त्ये
विमद नभाके (वृह ३-१२८); विमद ऋषि द्वारा दृष्ट ऋचाओं का पाठ बिना न्यूंख के करना चाहिए--
अन्यूंखया विराजो वैषदीश्च -- ( ऐत० ब्रा०- ६.४.२३); विमदाख्येन महर्षिणा दृष्टा वैम्यः ( ऐत० ब्रा० ६.
४. ३ सा०भा०) ; रेन की परम्परा में ही विमद ऐन्द्र नामक प्रख्यात ऋषि हुए। विमद को इन्द्र अथवा
प्रजापति का पुत्र माना गया है- एवा ते अग्ने विमदो मनीषाम्--(%० १०.२०.१०); यज्ञाय स्तीर्णबर्हिषे वि वो
मदे शीरम् --(ऋ०१०.२१.१) ।
१४८.विरूप आंगिरस (२७) - विरूप की गणना अंगिरसों में की गयी है । ऋग्वेद में विरूप का वर्णन यत्र
-तत्र प्राप्त होता है- प्रियपेधवदन्रिवज्जातवेदो विरूपवत्... (ऋ० १. ४५. ३); वाचा विरूप नित्यया. (० ८.
७५, ६) हे विरूप नानारूपैतन्नामक महर्षे... (०८. ७५. ६ सा० भा०) । ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के ४३ और
६४ सूक्त विरूप आंगिरस द्वारा दृष्ट है ।
९४९.विश्वमना वैयश्व (१०३, १०४, १०६, १५८९ आदि) - विश्वमनस् का पैतृक नाम वैयश्व
है। इनका कषित्त निम्नांकित तथ्यों से प्रकट हो जाता है इकिषव त्रिंशट्विश्वमना वैयश्व... (ऋ०८.