रसकी मात्रा क्रमश: उत्तम, मध्यम और अधमरूपमें चार
पल्, तीन पल तथा एक पल निश्चित कौ गयी है।
यदि घोड़ोंमें अकस्मात् एक ही प्रकारका रोग
उत्पन्न हो जाय और उपचार होनेपर भी घोडेकौ मृत्यु
हो जाय तो उसे उपसर्ग (कोई दैवीप्रकोप या महामारी)
समझना चाहिये। उसकी शान्तिके लिये हवन, पूजन,
ब्राह्मण- भोजन आदि कराना चाहिये। हरीतकी-कल्पके
सेवनसे भी उपसर्गकी शान्ति होती है। गोमूत्र, सरसोके तैल
और सेंधानमकसे युक्त हरीतकीकी मात्रा प्रारम्भे पाँच
मानी गयी है। तत्पश्चात् प्रतिदिन उसको पाँच-पाँच मात्रा
बढ़ाते हुए सौतक की जा सकती है। घोड़ेके लिये एक सौ
हरीतकीकी मात्रा उत्तम है। अस्सी तथा साठ मात्राओंका भी
परिमाण है जो मध्यम और अधम मात्राएँ मानी गयी हैं।
धन्वन्तरिजीने पुनः कहा--हे सुश्रत! अब मैं
(अश्वायुवेंदकी भाँति) गजायुरवेदका वर्णन करने जा रहा
हूँ, आप उसे सुनें। अश्वचिकित्सामें बताये गये औषधिक
कल्प हाथियोंके लिये भी हितकारी हैं। हाथीके निमित्त
ठकू मात्रा चौगुनी होती है। पूर्ववर्णित औषधियोंके द्वारा भी
हाथियोंमें पाये जानेवाले रोर्गोको दूर किया जा सकता है।
हाथियोंकी उपसर्गजनित व्याधियों (दैवीप्रकोप या महामारी
आदि)-के उपशमनके लिये गजशान्तिकर्म करना चाहिये।
देवताओं और ब्राह्मणोंकी रत्न आदिके द्वारा पूजा करके
उन्हें कपिला गौका दान दे। रक्षा-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित वचा
(वच) और सरसॉको मालामें पिरोकर हाथीके दोनों
दाँतोंमें बाँधना चाहिये। सूर्य आदि नवग्रहोंके तथा शिव,
दुर्गा, लक्ष्मी और विष्णुके पूजन आदिसे हाथीको रक्षा होती
है। देवादिकी पूजा करनेके पश्चात् प्राणियोंके लिये अन्नादिकी
बलि देकर हाथीको चार घड़ोंके जलसे स्नाने कराना
चाहिये। तदनन्तर मन्त्रोंद्रारा अभिमन्त्रित भोजन हाधौको
देना चाहिये। हाथीके पूरे शरीरपर भस्म लगाना चाहिये।
त्रिफला, पञ्चकोल (पीपर, पीपरामूल, चव्य, चित्रकमूल,
सॉठ), दशमूल, विडङ्ग, शतावरी, गुडूची, नीम, अडूसा
और पलाशके चूर्ण अथवा क्राथ हाथीके रोगोँको विनष्ट
करनेमें समर्थं ह । (अध्याय २०१)
^ ~न न्वन्या ~~
स्त्रियोंक विविध रोगोंकी चिकित्सा, बालकोंकी रश्चाके उपाय
तथा वलवर्धक औषधियाँ
श्रीहरिने कहा--हे शिव! पुनर्नवा अथवा अपामार्ग
नामक ओौषधिको जड़का गुण अद्वितीय है। इसका
यधाविधि प्रयोग करनेसे प्रसव - वेदनाका कष्ट दूर हो जाता
है। भुईंकुम्हड़ाकी जड़ अधवा साठी चावलको पीसकर
एक सप्ताहपर्यन्त दूधके साथ सेवन करनतेसे स्ट्रियोंके
दूधकी युद्धि होती है। हे रुदर! इन्द्रवारुणी (इन्द्रायण)-की
जड़का लेप करनेसे स्त्रियोंके स्तनॉकी पीड़ा विनष्ट हों
जातों है। नीली, परवलकौ जड़ तथा तिलको जलमें
पीसकर घीके साथ तैयार किया गया लेप ज्वालागर्दभ
नामक रोगका नाश करता है। पादाकौ जड़को चावलके
जलके साथ पौनेसे पाप-रोग विनष्ट हो जाता है। ऐसे
रोगका विनाश कुष्ट नामक औषधिके पीनेसे भी सम्भव है।
है शिव! बासी जलमें मधु मिलाकर पीनेसे वह पाप-
रोगको दूर कर देता है। गोघृत और लाक्षारसकों समभागमें
लेकर दूधके साथ उसे पीनेसे प्रदररोग दूर हो जाता है।
है हर! द्विजयष्टी (ब्रह्मदण्डी ), त्रिकटु (सॉठ, काली मिर्च,
पिप्पली)-का चूर्ण तिलके काढ़ेमें मिलाकर पौनेसे स्त्रियोंका
रछगुल्म रोग दूर हो जाता है। हे महेश! लाल कमलका
कन्द्, तिल तथा शर्करका औषधिक योग, स्तर्यो
गर्भधारणकी क्षमता उत्पन्न कर देता है। शर्कराके साथ
इन औषधियोंको पीनेसे स्तरियोका गर्भपात रुक जाता है
तथा शीतल जलके साथ सेवन करनेसे रक्तल्ाव भी
बंद हो जाता है। हे रुद्र! शरपोङ्घाकौ जड़का क्राय ओर
काँजी, हींग तथा सेंधानमक मिलाकर पौनेसे स्त्रियॉको
शीघ्र ही प्रसव हो जाता है। बिजौरा नीबूकी जड़कों
ऋटिप्रदेशमें बाँधनेसे भी प्रसव यथाज्ञीघ्र हो जाता है।
अपामार्गकी जड़ सिरपर धारण करनेपर स्त्रोकों गर्भजनित
पीड़ा नहीं होती।
है हर! जिस यालकके मस्तकपर गोरोचनका तिलक
रहता है और जो बालक शर्करा तथा कुष्ट नामक