४० अथर्ववेद संहिता भाग-१
१९९०. यज्ञ यज्ञं गच्छ यज्ञपतिं गच्छ । स्वां योनिं गच्छ स्वाहा ॥५ ॥
हे यज्ञदेव !आप हमारे यज्ञ, यज्ञपति तथा अपने आश्रयस्थान को गाए वह आहुति आपके लिए अर्पित है ।
१९९१. एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः । सुवीर्य: स्वाहा ॥६ ॥
( हे याजक) ! यह सूक्त एवं मंत्रों द्वारा विधिपूर्वक होने वाला यज्ञ आपको कल्याणकारी सामर्थ्य से युक्त
करे । (इस भाव से) यह आहूति समर्पित है ॥६ ॥
१९९२. वषददुतेभ्यो वषडहतेभ्यः । देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित ॥७ ॥
जिन देवगणो का यजन किया गया एवं जिनका वजन नहीं किया गया, उन समस्त देवताओं के लिए वह
आहूति अर्पित है । हे मार्गों को जानने वाते देवता ! जिस मार्ग से आप आये थे, इस सत्कर्म के समापन के
पश्चात् आप उसी मार्ग से अपने-अपने स्थानों को वापस जाएँ ॥७ ॥
१९९३. मनसस्पत इमं नो दिवि देवेषु यज्ञम् ।
स्वाहा दिवि स्वाहा पृथिव्यां स्वाहान्तरिक्षे स्वाहा वाते धां स्वाहा ॥८ ॥
है मन के स्वापी ! आप हमारे इस यज्ञ को द्युलोक में देवताओं तक पहुँचाएँ एवं पृथ्वी, अन्तरिक्ष, चयुलोक
एवं सषस्त वायु मण्डल में इसे स्थापित करें । यह आहति स्वाहुत (भली प्रकार समर्पित) हो ॥८ ॥
[ पनः शक्ति के द्वारा यज्ञ से उत्पन्न सतृप्रधावों को विश्रपण्डल ये स्थापित किया जा सकता है ।]
[ १०३ - हवि सूक्त (९८) ]
[ ऋषि- अथर्वा । देवता- इन्द्र, विश्वदेवा । छन्द- विराट् ब्िष्टुप् ॥]
१९९४. सं बर्हिरक्तं हविषा धृतेन समिन्रेण वसुना सं मरुद्धि:।
स॑ देवैर्विश्वदेवेभिरक्तमि नरं गच्छतु हविः स्वाहा ॥९ ॥
घृत एवं हवन सामग्री से आहुतियाँ भरपूर (पर्याप्त) मात्रा में प्रदान की गई हैं । इनसे इन्द्र, वसु, मरुत् सहित
समस्त देवतागण तृप्त हों । यह उत्तम आहूति देवताओं में प्रमुख देव इन्द्र को प्राप्त हो ॥१ ॥
[ १०४ - वेदी सूक्त (९९) |
[ ऋषि- अथर्वा । देवता- वेदी । छन्द भुरिक् त्रिष्टुप् ।]
१९९५. परि स्तृणीहि परि थेहि वेदिं मा जामि मोषीरमुया शयानाम् ।
होतृषदनं हरितं हिरण्ययं निष्का एते यजमानस्य लोके ॥९॥
(हे यज्ञदेव ! ) चारो ओर फैलकर वेदी को आच्छदित कर ते । याजक की बहिन (भावना-गति) को बाधितं
न करे । याजको का घर हरीतिमायुक्त हो तथा यजमान को इस लोक में स्वर्ण-मुद्राएँ अथवा अलंकार प्राप्त हो ॥१।
[ १०५ - दुःस्वप्ननाशन सूक्त (१००) ]
[ ऋषि- यम । देवता- दुःषवप्न नाशन । छन्द- अनुष्टुप् ।]
१९९६. पर्यावरतेदष्वप्यात् पापात् स्वघ्यादभूत्याः ।
ब्रह्माहमन्तरं कृण्वे परा स्वप्नमुखाः शुचः ॥९ ॥
हम दुःस्वण से होने वाले पाप से मुक्त होते हैं| हम ज्ञान की मध्यस्थता द्वारा स्वप्नो को एवं शोक आदि
से उत्पन्न पाप को दूर करते हैं, इनसे मुक्त होते हैं ॥१ ॥