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पहले मन्त्रका पद लिखे। बीचमें साध्यका

नाम लिखे। अन्तमें फिर मन्त्र लिखे। फिर

साध्यका नाम लिखे। तत्पश्चात्‌ पुनः मन्त्र लिखे।

यह “रोधक' सम्प्रदाय कहा गया है। स्तम्भन

आदि कर्मोंमें इसका प्रयोग करना चाहिये।

मन्त्रके ऊपर्‌, नीचे, दार्ये, बायें और बीचमें भी

साध्यका नामोल्लेख करे, इसे ' सम्पुट ' समझना

चाहिये। वश्याकर्षण-कर्ममें इसका प्रयोग करे।

जब मन्त्रका एक अक्षर लिखकर फिर साध्यके

नापका एक अक्षर लिखा जाय और इस प्रकार

बारी-बारीसे दोनोंके एक-एक अक्षरको लिखते

हुए मन्त्र और साध्यके अक्षरोंकों परस्पर ग्रथित

कर दिया जाय तो यह ' ग्रन्थन" नामक सम्प्रदाय

है। इसका प्रयोग आकर्षण या वशीकरण करनेवाला

है। पहले मन््रका दो अक्षर लिखे, फिर साध्यका

एक अक्षर। इस तरह बार-बार लिखकर दोनोंको

पूर्ण करे। (यदि मन्त्राक्षरोंक बीचमें ही समाप्ति

हो जाय तो दुबारा उनका उल्लेख करे।) इसे

“विदर्भ' नामक सम्प्रदाय समझना चाहिये तथा

वशीकरण एवं आकर्षणके लिये इसका प्रयोग

करना चाहिये॥ ३--७॥

आकर्षण आदि जो मन्त्र हैं, उनका अनुष्ठान

वसन्त-ऋतुमें करना चाहिये। तापज्वरके निवारण,

वशीकरण तथा आकर्षण-कर्ममें ' स्वाहा 'का प्रयोग

शुभ होता है। शान्ति और वृद्धि-कर्ममें “नमः '

प्रयोग करना चाहिये। पौष्टिक-कर्म, आकर्षण

और बशोकरणपें 'बषट्कार'का प्रयोग करें।

विद्वेषण, उच्चाटन और मारण आदि अशुभ कर्ममें

पृथक्‌ "फट्‌" पदकी योजना करनी चाहिये। लाभ

आदिमे तथा मन्त्रकी दीक्षा आदिमें 'बषट्कार'

ही सिद्धिदायक होता है। मन्त्रकी दीक्षा देनेवाले

आचार्यमें यमराजकी भावना करके इस प्रकार

प्रार्थना करे प्रभो! आप यम है, यमराज हैं,

कालरूप हैं तथा धर्मराज हैं। मेरे दिये हुए इस

शत्रुको शीघ्र ही मार गिराइये ' ॥ ८--१९॥

तब शत्रुसूदन आचार्य प्रसन्नचित्तसे इस प्रकार

उत्तर दे--'साधक! तुम सफल होओ। मैं यलपूर्वक

तुम्हारे शत्रुको मार गिराता हूँ।' श्वेत कमलपर

यमराजकी पूजा करके होम करनेसे यह प्रयोग

सफल होता है। अपनेमें भैरवकी भावना करके

अपने हौ भीतर कुलेश्वरी (भैरवी)-की भी

भावना करे। ऐसा करनेसे साधक रातमें अपने

तथा शत्रुके भावी वृत्तान्तको जान लेता है।

*दुर्गरक्षिणि दुर्गे!' (दुर्गकी रक्षा करनेवाली अथवा

दुर्गम संकटसे बचानेवाली देवि! आपको नमस्कार

है)--इस मन्त्रके द्वारा दुर्गाजीकी पूजा करके

साधक शत्रुका नाश करनेमे समर्थ होता है। "ह

सक्षमलवरयुम्‌'-इस भैरवी-मन्तरका जप

करनेपर साधक अपने शत्रुका वध कर सकता

है॥ १२-१४॥

इस प्रकार आदि आण्नेय महाएराणमें 'यट्कर्सका वर्णन” नामक

एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १३८॥

एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय

साठ संवत्सरोंमें मुख्य-मुख्यके नाम एवं उनके फल-भेदका कथन

भगवान्‌ महेश्वर कहते हैं--पार्वति! अब मैं | यज्ञकर्मकी बहुलता होती है। “विभव' में प्रजा

साठ संवत्सरो (मेंसे कुछ)-के शुभाशुभ फलको | सुखी होती है। “शुक्ल में समस्त धान्य प्रचुर

कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। “प्रभव' संवत्सरमें | मात्रामें उत्पन्न होते हैं। 'प्रमोद' से सभी प्रमुदित

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