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३०० + अऔमद्धागवत « [ अ १६

जै मैन मीम मौ ममौ ॐ नि त मै लौ ॐ मैः निम ॐ म ॐ नमै ॐ न म मै तौ मै मै मि मम. मै ॐ नै नि ॐ म मै मै तौ नैः मौ मिनन मि नम ओ नन कमै कैत तमै मौ तै के औ औ जे हे ऊँ औ कै औ ऊँ है है तै मै औ ऊँ है के औ मै है औ औ कै मै औ औ हे मै मै मै औ मै: मकै कैन ककन

कमलके कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे

भीतरका कोश है । इसका विस्तार एक लाख योजन है

और यह कमलपत्रके समान गोलाकार है ॥ ५॥ इसे

नौ-नौ हजार योजन विस्तारवाले नौ वर्ष हैं, जो इनकी

सौपाओंका विभाग करनेवाले आठ पर्वतोंसे बैरे हुए

हैं॥ ६॥ इनके बीचों-बीच इलाचृत नामका दसवां वर्ष है,

जिसके मध्यमे कुलपर्वतोंका राजा मेरुपर्वत है। बह मानो

भूमण्डलरूप कमलकौ कर्णिका हो है। बह ऊपरसे

नोचेतक सारा-का-सारा सुवर्णमय है और एक लाख

योजन ऊँचा है। उसका विस्तार शिखरपर बत्तीस हजार

और तलैटीमें सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार

योजन ही वह भूमिके भीतर घुसा हुआ है अर्थात्‌ भूमिके

बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन रहै ॥ ७॥

इलावृतवर्षके उत्तरे क्रमशः नील, श्वेत ओर शृङ्गवान्‌

नामके तीन पर्वत हैं--जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु

नामके वर्षोंकी सीमा बधते हैं । व पूर्वसे पश्चिमतक खारे

पानीके समुद्रतक फैले हुए है । उनमेंसे प्रत्येककी चौड़ाई

दो हजार योजन है तथा लम्बाईमें पहलेकी अपेक्षा पिछला

क्रमशः दशमांशसे कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और

ऊँचाई तो सभीकी समान हैं॥ ८ ॥

इसी प्रकार इलावृतके दक्षिणकौ ओर्‌ एकके बाद

एक निषध, हेमकूट और हिमालय नामके तीन पर्वत हैं।

नीलादि पर्वतोंके समान ये भी पूर्व-पश्चिमकी ओर फैले

हुए हैं और दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं। इनसे क्रमशः

हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्षकी सौमाओंका विभाग

होता है ॥ ९ ॥ इलावृते पूर्व और पश्चिमकी ओर--उत्तरमें

नील पर्वत और दक्षिणमें निषध पर्वततक फैले हुए

गन्धमादन और माल्यवान्‌ नामके दो पर्वत हैं। इनकी

चौड़ाई दो-दो हजार योजन है और ये षद्रा्च एवं केतुमाल

नामक दो वर्षोंकी सीमा निश्चित करते हैं॥ १० ॥ इनके

सिका मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्थ ओर कुमुद--ये चार

दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने हो चोड़े पर्वत मेर

पर्वतकी आधारभूता धूनियोकि समान बने हुए हैं॥ ११ ॥

इन चारोकि ऊपर इनकी ध्वजाओकि समान क्रमशः आम,

जामुन, कदम्ब और बड़के चार पेड़ है । इनमेंसे प्रत्येक

ग्यारह सौ योजन ऊँचा है और इतना ही इनकी

शाखाओंका विस्तार है । इनकी मोटाई सौ-सौ योजन

है ॥ १२॥ भरतश्रेष्ठ ! इन पर्वतोपर चार सरोवर भी

हैं--जो क्रमशः दृध, मधु, ईखके रस और मीति जलसे

भरे हुए रै । इनका सेवन करनेवाले यक्ष-कित्नरादि

उपदेवोंको स्वभावसे ही योगसिद्धियाँ प्राप्त है ॥ १३॥

इनपर क्रमशः नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र

नामके चार दिव्य उपवन भी है ॥ १४॥ इनमें

प्रधान-प्रधान देवगण अनेकों सुरसुन्दरियोकि नायक

बनकर साथ-साथ विहार करते हैं। उस समय गन्धरवादि

उपदेवगण इनकी महिमाका नखान किया करते हैं ॥ १५॥

मन्दराचलकी गोदमें जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा

देवताओंका आम्रवृक्ष है, उससे गिरिशिखरके समान

बड़े-बड़े और अमृतके समान स्वादिष्ट फल गिरते

हैं॥ १६ ॥ वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और

मठ) लाल-लाल रस बहने लगता है। वही अरुणोदा

नामकी नदीमें परिणत हो जाता है। यह नदी मन्दराचलके

शिखरसे गिरकर अपने जलसे इलावृत वर्धके पूर्वी-

भागकरो सींचती है॥१७॥ श्रीपार्वतीजोकी अनुचरी

यक्षपत्रियाँ इस जलका सेवन करतौ है । इससे उनके

अक्ञेंसे ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें स्पर्श करके

बहनेवाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजनतक सारे

देशको सुगन्धसे भर देती है ॥ १८ ॥ इसो प्रकार जामुनके

वृक्षसे हाथीके समान बड़े-बड़े प्रायः बिना गुठलीके फल

गिरते हैं। बहुत ऊँचेसे गिरनेके कारण वे फट जाते हैं।

उनके रससे जम्बू नामकौ नदी प्रकट होती है, जो मेरुमन्दर

पर्वतके दस हजार योजन ऊँचे शिखरसे गिरकर इलावृतके

दक्षिण भू-भागकों सींचती है ॥ १९॥ उस नदीके दोनों

किनारोंकी पिद्री उस रससे भीगकर जब वायु और सूर्यके

संयोगसे सूख जाती है, तब वही देवलोककों विभूषित

करनेवाला जाम्बूनद नामका सोना बन जाती है॥ २० ॥

इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी सिये सहित

मुकुट, कङ्कण ओर करधनी आदि आभूषणोकि रूपे

धारण करते है ॥ २१॥

सुपार पर्वतपर जो विशाल कट्बवुक्ष है, उसके

पाँच कोटरोंसे मधुकी पाँच धारां निकलती हैं; उनकी

मोटाई पाँच पुरसे जितनी है। ये सुपार्धक शिखरसे गिरकर

इलावृतवर्पके पश्चिमी भागकों अपनी ॥

सुवासित करती है ॥ २२॥ जो लोग इनका मधुपान

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