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धर्मराजके नगरमे सुखपूर्वक जाता है; इसलिये धर्मका

अनुष्ठान अवदय करना चाहिये। राजन्‌ ! जो लोग क्रूर

कर्म करते और दान नहीं देते है, उन्हें नरकमें दुःसह

दुःख भोगना पड़ता है । दान करके मनुष्य अनुपम सुख

भोगते दै ।

जो एक दिन भी भक्तिपूर्वक भगवान्‌ शिवकी पूजा

करता है, वह भी शिवल्म्ेकको प्राप्त होता है; फिर जो

अनेकों बार उनकी अर्चना कर चुका है, उसके लिये तो

कहना ही क्या है। श्रीविष्णुकी भक्तिमें तत्पर और

श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहनेवाले वैष्णव बैकुण्ठ धाममें

चक्रधारी भगवान्‌ श्रीविष्णुके समीप जाते हैं । श्रीविष्णुका

उत्तम छक श्रीराङ्करजीके निवासस्थानसे ऊपर समझना

चाहिये। वहाँ श्रीविष्णुके ध्याने तत्पर रहनेवाले वैष्णव

मनुष्य ही जाते हैं। मनुष्योमें श्रेष्ठ, सदाचारी, यज्ञ

करानेवाले, सुनीतियुक्त और विद्वान्‌ ब्राह्मण ब्रह्मलेकको

जाते हैं। युद्धमें उत्साहपूर्वक जानेवाले क्षत्रियो

इन्द्रल्लोककी प्राप्ति होती है तथा अन्यान्य पुण्यकर्ता भी

पुण्यलोकॉमें गमन करते हैं।

बस #॥ 4४ ब्कन॑े

मातलिके द्वारा भगवान्‌ शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातल्को विदा

करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ -तुल्य

बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना

ययाति बोले--मातले ! तुमने धर्म और

अधर्म--सबका उत्तम प्रकारसे वर्णन किया। अब

देवताओंके ल्लोकोंकी स्थितिका वर्णन करो । उनकी

संख्या बताओ । जिस पुण्यके प्रसज़से जिसने जो लोक

प्राप्न कतिया हो, उसका भी वर्णन करो ।

मातलिने कहा--राजन्‌ ! देवताओंके च्छक

भावमय हैं। भावोंके अनेक रूप दिखायी देते हैं; अतः

भावात्मक जगत्की संख्या करोड़ोंतक पहुँच जाती है।

परन्तु पुण्यात्माओकि लिये उनमेंसे अट्टाईस लोक ही

पराप्य हैं, जो एक-दूसरेके ऊपर स्थित और अत्यन्त

बिज्ञाल हैं। जो लोग भगवान्‌ शाङ्करको नमस्कार करते

हैं, उन्हें शिवलोकका विमान प्राप्त होता है। जो

असड्रयश भी शिवका स्मरण या नाम-कीर्तन अथवा

उन्हें नमस्कार कर लेता है, उसे अनुपम सुखकी प्राप्ति

होती है। फिर जो निरन्तर उनके भजनमें ही लगे रहते

हैं, उनके विषयमें तो कहना ही क्या है । जो ध्यानके द्वारा

भगवान्‌ श्रीविष्णुका चिन्तन करते हैं और सदा उन्हींमें

मन लगाये रहते हैं, वे उन्हीकि परम पदको प्राप्त होते हैं ।

नरश्रेष्ठ ! श्रीशिव और भगवान्‌ श्रीविष्णुके लोक एक-से

ही हैं, उन दोनेमिं कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि उन दोनों

महात्माऑ-- श्रीशिव तथा श्रीविष्णुका स्वरूप भी एक

ही है। श्रीविष्णुरूपधारी शिव और श्रीशिवरूपधारी

विष्णुको नमस्कार है। श्रीशिवके हदयमे विष्णु और

श्रीविष्णुके हृदयमें भगवान्‌ शिव विराजमान हैं। ब्रह्मा,

विष्णु और शिव--ये तीनों देवता एकरूप ही हैं। इन

तीनोके स्वरूपम कोई अन्तर नहीं है, केवल गुणोका भेद

बतलाया गया है ।* राजेन्द्र ! आप श्रीशिवके भक्त तथा

भगवान्‌ विष्णुके अनुरागी है; अतः आपपर ब्रह्मा, विष्ण]

और हिव-- तीनो देवता प्रसन्न है । मानद ! मैं इन्द्रकी

आज्ञासे इस समय आपके पास आया हूँ। अतः पहले

इन्द्रल्लेकमें चलिये; उसके बाद क्रमशः ब्रह्मलेक,

शिवस्तेक तथा विष्णुलोकको जाइयेगा। वे रोक दाह

# दवै च कैण्णव॑ ल्ोकमेकरूपे नरोत्तम | इयोशआ्लाप्यन्तर॑ न्स्ति एकरूप महात्मनोः ॥

शिवाय विष्णुरूपाय चिष्णये शिवखूपिणे | शिवस्य हदये किण्णुर्विष्णोश्ष हदये शिवः ॥

एकमू्िस्यो देवा

बरह्मविष्णुहेश्वरः । त्रयाणामन्तर नाम्नि गुणभेदः प्रकीर्तिताः ॥

(७१।१८- २०)

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