अध्याय १८० ]
छोटी नदियोंसे लेकर समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर जितने
तीर्थ हैं, उन सबमें “कुब्जाम्रक' तीर्थ श्रेष्ठ माना
जाता है। मेरी श्रद्धासे सम्पन्न सत्पुरुष सदा
उनकी प्रशंसा करते हैं। कुब्जाप्रकसे भी कोटिगुना
अधिक परम गुह्य " सौकरव 'तीर्थ है। एक समयकी
बात है- मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिको
मैं " सितवैष्णव 'तीर्थमें गया। वहाँ पुराणोंमें श्रेष्ठ
एक “गड्जासागरिक' नामका पुराण देखा है। इसमें
मेरे मथुरामण्डलके तीर्थोंकी अत्यन्त गुह्या महिमा
वर्णित है। “सिततीर्थसे' पराद्धगुना फल यहाँ
सुलभ होता है--इसमें कोई संशय नहीं है।
" कुन्जाप्रक' प्रभृति समस्त तीर्थो भ्रमण करनेके
पश्चात् मैं मथुरामे आया और एक स्थानपर बैठ
गया। मेरे उस स्थानका नाम “विश्रान्तितीर्थ'
* भआ्राद्धसे अगस्तिका उद्धार, आद्ध-विधि*
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पड़ गया। यह स्थान गोपनीयोंमें भी परम
गोपनीय है। वहाँ स्नान करनेसे परम उत्तम फल
मिलता है। गतिका अन्वेषण करनेवाले व्यक्तियोंके
लिये मथुरा परम गति है। मथुरामें विशेष करके
“कुब्जाप्रक' और " सौकर ' क्षेत्रकी महिमा है।
सांख्ययोग और कर्मयोगके अनुष्ठानके बिना भी
इन तीर्थोंकी कृपासे मानव मुक्त हो जाता है,
इसमें कोई संशय नहीं है। योगसे सम्पन्न विद्वान्
ब्राह्मणके लिये जो गति निश्चित है, वही गति
मथुरामे प्राण-त्याग करनेसे साधारण व्यक्तिको
भी प्राप्त हो जाती है। सुत्रते! वस्तुतः मथुरासे
उत्तम न कोई दूसरा तीर्थ है और न भगवान्
केशवसे श्रेष्ठ कोई देवता है।
[अध्याय १७८-१७९]
८-22.
श्राद्धसे अगस्तिका उद्धार, श्राद्ध-विधि तथा ' श्रुवतीर्थ 'की महिमा
भगवान् वराह कहते ह -- वसुंधरे! अब
पितरोंसे सम्बद्ध एक दूसरा प्रसङ्ग कहता हूँ, उसे
सुनो। मधुरापुरे पहले एक धार्मिक एवं शूर-
वीर राजा थे, जिनका नाम चन्द्रसेन था। उनकी
दो सौ रानियाँ थीं, जिनमें “चन्द्प्रभा' सबसे
गुणवती थी, उसके सौ दासियाँ थीं, जिनमें
एकका नाम “प्रभावती' था। उस दासीके परिवारके
पुरुष सदाचार विहीन थे। सभी मरकर दोषके
कारण नरकयातनामें पड़ गये; क्योंकि उनके
कुलमें एक वर्णसंकर उत्पन्न हो गया था।
देवि! एक समय वे पितर ' ध्रुवतीर्थ में आये,
जिनपर एक त्रिकालदर्शी ऋषिकी दृष्टि पड़ गयी।
इनमें कुछ दिव्य रूपवाले पितर आकाश-गमनकी
शक्तिसे युक्त श्रेष्ठ वाहनोंपर चढ़कर आये और
अपने वंशजोंकों आशीवदि देकर चले गये। कुछ
दूसरे पितृगण जो 'ध्रुवतीर्थ 'में आये, उनके श्राद्ध
न होनेसे पेटमें झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। अतः वे
पुत्रोंको शाप देकर चले गये। त्रिकालज्ञ मुनि यह
सब दृश्य देख रहे थे। जब पितृगण चले गये और
वे मुनि अकेले आश्रममें रह गये तो एक
सूक्ष्म शरीरधारी पितरने उनसे कहा--' मुने!
वर्णसंकरसम्बन्धी दोषके कारण मुझे नरकमें
स्थान मिला है। मैं सौ वर्षोसे आशारूपी रस्सियोंसे
बधा प्रतीक्षा करता रहा; पर अब निराश होकर
आपके पास आया हूँ। तीनों तापोंसे अत्यन्त
घबराकर और विवश होकर मैं आपकी शरण
आया हूँ। जिनके पुत्रोंने पिण्डदान एवं तर्पण
किया है, बे पितर हृष्ट-पुष्ट होकर आकाशगमनकी
शक्तिसे स्वर्गमें चले गये हैं। किंतु मैं बलहीन
व्यक्ति कहीं भी नहीं जा सकता हूँ। जिनकी
संतान अपने बाल-बच्चोंके साथ सदा सम्पन्न है,
वे उनके द्वारा स्वधासे सुपूजित होकर परम
गतिके अधिकारी होते है । त्रिकालस् मुनिवर!
आपको दिव्य दृष्टि सुलभ है। उसके प्रभावसे