३३२ | {= भत्व पुरागां
विपर्ययेण विहिता सवस्त्रीणां फलागमः ।
दक्षिणेऽपि प्रशस्तेऽद्खं प्रशस्तं स्याद्विशेषतः ।१२
अतोऽन्यथा सिद्विप्रजल्पनात्त, फलस्य गस्तस्थः च निन्दितस्य
अनिष्टचिहनोपगमे द्विजानां कायं सुवर्णो तु त्पणेरयात्। १३
बाहुओं के स्फूरण से सुहृत् का स्नेह और हाथ में होने से धन का
समागम हुआ करता हैं । पृष्ठ में होने से वुरन््त ही पराजय होती है
तथा बल्ष:स्थल में स्पन्द्न से जय हुआ करता है । कुक्षियों में होने से
परीति उपदिष्ट कौ गई है ओर स्तन में स्पन्दन से स्त्री के प्रजनन हुआ
करता है। नाभि देण में प्रस्फुरण होनें से स्थान का श्र|श' हुआ करता.
है तथा अन्यमें होने से धन को आगमन होता है । जानुओं की सन्धि:
प्रस्फूरण दीनस परोंसे सन्धि होती है जो कि वहुत बलवान हुआ करते:
हैं| है नूप ! हैं रॉवनन्दस ! दिशा के एक देश में होने से नाश होताहै
तथा जलंघा में स्यन्दन होतों उत्तम स्थान का लाभ होता है और पैरों
में होने से लाभ के सहित मार्ग का गसन होता है । हें नूप ! पादतलमें
होने स लाञ्छन लगता है और स्फ्रण की ही भाँति फिर कमी जान
लेता विपर्यय मे फलागम हुआ करता है | प्रणस्त अम दक्षिण में भी
विशेष रूप से प्रणस्त होता है इसलिए अन्यथा सिद्धि के प्रजल्पन से
प्रशस्त और निन्दित फल का । अनिष्ट चिन्हों के उपगम होने पर
द्विजों का सुवणं के द्वारा तर्पण करना चाहिए ॥हून्श ३।.
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१०८ -स्वध्न वशंनं वर्णन
स्नप्नाख्यानं कथं देव ! गृश्ने प्रत्युवस्थिते ।
हश्यन्ते विविधाकाराः कश्चन्तेषां फलं भवेत् । १