आचारकाण्ड ] * स्दाचार एवं शौच्ाचारका निरूपण * ३१५
५<ऋ&<< |*<<्ंड >> डे जज 2अ> 334८2 >> 2222
(।॥\।।) त्था एक सगण (॥॥5 )- इस प्रकार प्रकार उपस्थितप्रचुपित नामक छन्दका जब पहला पाद
अदारह अक्षर हों तो वह वर्धमान नामक न्द होता है। वही हो और शेष तीन पादोंमें तगण (55।), जगण
उसी ठपस्थितप्रचुपित्त नामक छन्दके जब तोन पाद (प्रथम, (।5।), तथा रगण (5 5)- इस प्रकार नौ अक्षर हों
द्वितीय तथा चतुर्थ) समान हों, किंतु तृतीय पादे तगण तो ऐसा छन्द ॒शुद्धविराद् कहलाता है। ये छन्द
(55 |), जगण (।3।) और रगण (3 । 5 )-- इस प्रकार उपस्थितप्रचुपित नामक छन्दके अवान्तर भेदॉँमें आते हैं।
नौ अक्षर हों तो वह आर्षभ नामक छन्द होता है । इसी (अध्याय २११)
^ -न्यन्कमे -
छन्द-विधान ( प्रस्तार-निरूपण )
सुतजीने कहा--अब प्रस्तारकेः विषयमे बतला रहा
हं । ऊपरके पाद्मे आदि अक्षर गुरु हो तथा उसके नौचेके
पादमें लघु अक्षर हो, वह एकाक्ष प्रस्तार है । उसके बाद
इसी क्रमसे वर्णोकी स्थापना करे अर्थात् पहले गुरु और
उसके नीचे लघु अक्षरकौ स्थापना करे, यह द्वयक्षर-प्रस्तार
है। प्रस्तारके अनन्तर नष्टका निरूपण इस प्रकार है- नष्ट
संख्याकों आधी करनेपर जब वह दो भागोंमें बराबर वट
जाय तब एक लघु लिखना चाहिये, यदि आधा करनेपर
विषम संख्या प्राप्त हो तो उसमें एक जोड़कर सम बना
ले और इस प्रकार पुनः आधा करे। ऐसी अवस्थामें
एक गुरु अक्षरकी प्राप्ति होती है, उसे भी अन्यत्र लिख
ले। जितने अक्षरवाले छन्दके भेदको जानना हो, उतने
अक्षरोंकी पूर्ति होनेतक पूर्वोक्त प्रणालीसे गुरु-लघुका
उल्लेख करता रहे।
अब उद्दिष्टके विषयमें बतलाया जा रहा है--उद्दिष्टकी
प्रक्रिया जाननेके लिये छन्दके गुरु-लघु क्रमशः एक पंक्तिमें
लिखकर उनके ऊपर क्रमशः एकमे लेकर दूने-दूने अङ्क
रखता जाय अर्थात् प्रधम अक्षरपर एक, द्वितीयपर दो,
तृतीयपर तीन-- इस क्रमसे संख्या होगी। बिना प्रस्तारके ही
वृत्त-संख्या जाननेके उपायकों संख्या कहते हैं। इसकी
प्रक्रिया इस प्रकार है- जितने अक्षरके छन्दकौ संख्या
जाननी हो, उसका आधा भाग निकालनेसे दोकी उपलब्धि
होगी। उसे अलग रख ले। विषम संख्यामें एक घटाकर
शून्यकी प्राप्ति होगी, उसे दोके नीचे रखकर शून्यके
स्थानमें दुगुना करे, इससे प्राप्त हुए अङ्कको ऊपरके
अर्धस्थानमें रखे और उतनेसे ही गुणा करे।
एकद्यादिलगक्रियाकी सिद्धिके लिये मेरुप्रस्तारको
बतलाया जा रहा है। किसी छन्दमें कितने लघु, कितने
गुरु तथा एकाक्षरादि छन्दोकि कितने वृत्त होते हैं, इसका ज्ञान
मेस्प्रस्तारसे होता है। मेरुअस्तारमें नीचेसे ऊपस्की ओर
आधा-आधा अंगुल विस्तार कम होता जाता है। छन्दकौ
संख्याकों दूनी करके एक-एक घटा दिया जाय तो उतने
ही अंगुलका उसका अध्वा ( प्रस्तारदेश) होता है। इस
प्रकार छन्दःशास्त्रका सार बतलाया गया। (अध्याय २१२)
#++न्यन्याओं- >>
सदाचार एवं शौचाचारका निरूपण
सूतजीने कहा--है शौनक! श्रीहरिसे सुनकर ब्रह्माजीने
व्याससे सब कुछ देनेवाले ब्राह्मणादि वर्णोंके सदाचारकों
जैसे कहा है, उसी प्रकार मैं कहता हूँ।
श्रुति (वेद) और स्मृति (धर्मशास्त्र)-का भली प्रकारसे
अध्ययन करके श्रुतिप्रतिपादित कर्मका पालन करना
चाहिये। (क्योंकि श्रुति ही सब कर्मोंका मूल है।) यदि
(उपलब्ध) श्रुतियोमें कोई कर्म ज्ञात नहीं हो रहा है तो
उसको स्मृतिशास्त्रके अनुसार जानकर करना चाहिये
(क्योंकि स्मृतिशास्त्र भी ब्रुतिमूलक होनेके कारण ही
कर्मके बोधमें प्रमाण माने जाते हैं) और स्मार्तधर्मके
पालनमें असमर्थ होनेपर विद्वान् व्यक्तिकों चाहिये कि वह
सदाचारका पालन करे। कर्ममार्गका दर्शन करानेके लिये
श्रुति तथा स्मृति--ये नेत्रस्वरूप हैं।
श्ुतिमें कहा गया धर्म परम धर्म है। स्मृति और शास्त्रसे
प्रतिपादित धर्म अपर धर्म है। इस प्रकार श्रुति, स्मृति और
शिष्टाचारसे प्राप्त धर्म-ये तीन प्रकारके सनातनधर्म हैं।
१- किप छन्दके कितने भेद हो सकते हैं, सामान्यरूपसे इसका ज्ञान करानेबालों प्रणालौकों "प्रस्तार ' कहा जाता दै । प्रस्तार, ऋ, उष,
एकद्रकदिलगक्रिया, संख्या तथा अध्वयोग ~ ये छः प्रणालियाँ हैं।