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* आदित्य-मण्डल्क्दान-विधि «

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तैदूके फलॉसे ओर सातवीं वृन्ताक-फलॉसे करे अथवा

अष्टोत्तरशत प्रदक्षिणा करे । मोती, पद्मराग, नीलम, पत्ना,

गोमेद, हीरा और वैदूर्यं आदिसे भी प्रदक्षिणा करे तथा

अखरोट, वेर, बिल्व, करौदा, आप्र, आप्रातक (आमडा),

जामुन आदि जो भी उस कालमे फल-फूल मिले उससे

प्रदक्षिणा करे। प्रदक्षिणा करते समय बीचमें बैठे नहीं, न

किसीको स्पर्श करे और न किसीसे बात करे । एकाग्रचित्तसे

प्रदक्षिणा करनेसे सूर्यभगवान्‌ प्रसन्न होते हैं। गौके घृतसे

वसोर्धारा भी दे। किकिणीयुक्त ध्वजा तथा शेत छत्र चढ़ाये

और फिर कुंकुम, गन्ध, पुष्प, धूप तथा नैवेद्य आदि उपचासेसे

पूजन कर इस मन््रसे भगवान्‌ सूर्यसे क्षमा-प्रार्थना करे--

भानो भास्कर मार्तण्ड चण्डरश्मे दिवाकर ।

आरोम्यमायुर्विजयं पुत्र देहि नमोऽस्तु ते॥

(उत्तर्पर्व ४३ । १४)

इस ब्रतमें उपवास, नक्तत्रत अथवा अयाचित-ब्रत करे ।

इस घिजया-सप्तमीका नियमपूर्वक चत करनेसे रोगी रोगसे

मुक्त हो जाता है, दरिद्र लक्ष्मी प्राप्त करता है, पुत्रहीन पुत्र

आप्त करता है तथा विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता है। शुक्ल

भोजन करना चाहिये। भूमिपर पलाशके पततौपर शयन करना

चाहिये । इस प्रकार ब्रतकी समाप्तिपर सूर्यभगवान्‌का पूजनकर

पडक्षर-मन्त्र (खखोल्काय नमः) से अष्टोत्तरशत हवन करे ।

सुवर्णपात्रे सूर्यप्रतिमा स्थापित कर रक्तवज्ञ, गौ और दक्षिणा

इस मन्तरका उच्चारण करते हुए ब्राह्मणको प्रदान करे--

ॐ भास्कराय सुदेवाय नमस्तुभ्यं यशस्कर ॥

ममाद्य समीहितार्धप्रदो भव नमो नयः।

(उतरपर्व ४३। २३-२४)

तदनन्तर शय्या-दान, श्राद्ध, पितृतर्पण आदि कर्म करे ।

इस ततके करनेसे यात्रियोकी यात्रा प्रशस्त हो जाती है,

विजयकी इच्छायाले राजाको युद्धम विजय अवश्य प्राप्त होती

है, इसलिये लोकम यह विजयसप्तमीके नामसे विश्रुत है । इस

व्रतक्रे करनेवाला पुरुष संसारके समस्त सुखोको भोगकर

सूर्यलोके निवास करता है और फिर पृध्वीपर जन्म प्रहणकर

दानी, भोगी, विद्वान्‌, दीर्घायु, नीयोग, सूखी और हाथी, घोड़े

तथा रल्रोंसे सम्पन्न बड़ा प्रतापी राजा होता है । यदि स्त्री इस

व्रतको करे तो वह पुण्यभागिनी होकर उत्तम फलोंको प्राप्त

करती है । राजन्‌ ! इसमें आपको किंचित्‌ भी संदेह नही करना

पश्चकी आदित्यवारयुक्त सात सप्तमिर्योमिं नक्तनत कर मुँगका चाहिये । (अध्याय ४३)

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आदित्य-पण्डलदान-विधि

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! अब मैं समस्त श्रेयसे मप चिप्र त्व॑ प्रतिगृह्ेदमुत्मस्‌ ॥

अशुभोकि निवारण करनेवाले श्रेयस्कर आदित्य-मण्डलके (उत्तरपर्थ ४४। ५)

दानका वर्णन करता हूँ। जौ अथवा गोधूमके चूर्णमें गुड़ ब्राह्मण भी उसे ग्रहणकर निम्नलिखित मन्त्र बोले--

मिलाकर उसे गौके घृतमें भलीभाँति पक्व्कर सूर्यमण्डलके

समान एक अति सुन्दर अपूप बनाये और फिर सूर्यभगवान्‌का

पूजनकर उनके आगे रक्तचन्दनका मण्छप अंकितकर उसके

ऊपर बह सूर्यमण्डलात्मक मण्डकः (एक प्रकारका पिष्टक)

रखे । ब्राह्मणको सादर आमन्त्रित कर रक्त वस्र तथा

दश्छिणासहित वह मण्डक इस मन्त्रके पढ़ते हुए ब्राह्मणको

प्रदान करे--

आदित्यतेजसोत्यन्नं राजतं विधिनिर्मितम्‌ ।

प आते

कापद धनद ध्यै पुत्रदै सुखदं तव ।

आदित्यप्रीतये दत्त प्रतिगृह्वामि पष्डलम्‌ ॥

(उत्तरपर्व ४४। ६)

इस प्रकार विजय-सप्तमीको मण्डकका दान करे और

साम्य होनेपर सूर्यभगवानकी प्रीतिके लिये शुद्धभावसे नित्य

ही मण्डक प्रदान करें। इस विधिसे जो मण्डकक्य दान करता

है, यह भगवान्‌ सूर्यके अनुग्रहसे राजा होता है और

स्वर्गलोकमें भगवान्‌ सूर्यकी तरह सुशोभित होता है।

(अध्याय ४४)

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