उत्तरभागे अष्टाविज्ञोईध्याय:
व्यासजी ने कहा- वापप्रस्थाश्रम में इस प्रकार रहते हुए,
आयु का तौसरा भाग समाप्तकर आयु के चौथे भाग में
संन्यास धर्म का पालन करना चाहिए।
अग्नीनात्मनि संस्थाप्य द्विजः परत्रजितो भवेत्।
योगाध्यासरत: ज्ञानतो ब्रह्वविच्चापरावणः॥ २॥
योगाध्यास में संलग्न रहने वाले शान्तचित्त, ब्रह्मविद्या-
परायण ब्राह्मण को आत्मा में अग्नि की स्थापना कर प्रव्रज्या
ग्रहण करनी चाहिए।
तदा संन्यासमिच्छति पतितः स्थाद्विपर्यये॥ ३॥
जब मन में सब वस्तुओं के प्रति तृष्णा समाप्त हो जाए,
तभी संन्यास लेना चाहिए। अन्यधा इसके विपरीत होने पर
पतित होना पड़ता है।
सर्वप्रथम इन्द्रियों को वश में करके, प्राजापत्य या आग्नेय
यज्ञ करना चाहिए। फिर कषाय- राग द्वेषादि मल रहित
होकर संन्यासाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।
ज्ञाससंन्याप्तिन: केचिद्वेदसंन्वासिनः परे।
छर्मसंन्यासिनस्त्वन्ये विविधाः परिकोर्तिता:॥ ५॥
ज्ञान संन्यासी, वेद संन्यासी और कर्म सन्यासी के भेद से
संन्यासो तीन प्रकार के कहे गये हैं।
यः सर्वसद्ननिर्षुक्तो वि्द्र्ैव निर्भय:।
परोच्यते ज़ानसंन्यासी स्वात्यन्येवं व्यवस्थित:॥ ६॥
जिनकी किसो विषय में आसक्ति न हो, इन्हों से मुक्त
भयरहित और आत्मा के प्रति चिन्तनशोल हो, वे
ज्ञानसंन्यासी कहलाते हैं।
वेदपेवाध्यसेश्रित्यं निईन्द्दो निष्परिगह;।
प्रोच्यते वेदसंन्यासी पुपर्विकन्धियः॥७॥
जो इन्द्र और दान से मुक्त रहकर नित्य वेदाभ्यास करते
हैं, मोक्षाभिलापी और इन्द्रियों को जीतने वाले वे लोग
केदसंन्यासो कहलाते हैं।
यस्त्वग्नीनात्मसात्कृत्वा द्रह्मापणपरो द्विज;।
स ज्ञेयः कर्मसंन्यासी महायज्ञपरायण:॥ ८॥
जो ब्राह्मण सभी अग्निर्यो को आत्पसात् करके ब्रह्म को
सर्वस्व अर्पित कर देते हैं, महायज्ञ में परायण वे
कर्मसंन्यासो के नाम से जाने जाते हैं।
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श्रयाणापपि चैतेयां ज्ञानी त्वभ्यधिको मतः।
न तस्य विष्ठते कार्य न लिङ्गं वा विपक्चित:॥ ९॥
इन तौन प्रकार के संन्यामियो में जो जानसंन्यासी कहे
जाते हैं वे हौ श्रेष्ठतम होते हैं। ऐसे संन्यासिर्यो का कोई
कर्म, चिह्न और परिचय नहीं होता।
निर्मषों निर्भय: ज्ञान्तो निर्न निष्परित्रह:।
जीर्णकौपौनवासाः स्थान्नग्नो बा ध्यानतत्पर:॥ १०॥
इन्हें ममता रहित, निर्भय, शान्त, दद्र और दान से मुक्त
रहकर, जीर्णं कौपीने या वख धारण करके अथवा नान
होकर ध्यान में लोन होना चाहिए।
ब्रह्मचारी मितग्रासी बआमात्त्वन्न॑ समाहरेत्
अध्यात्ममतिरासीत निरपे्षो निरामिषः॥ १९॥
ब्रह्मचारी को सीमित भोजनं ग्रहण करना चाहिए और
गाँव से अन्न संग्रह करके लाना चाहिए। सरैव ब्रह्मचित्ता में
लीन रहना, निःस्पृह होकर मन में किसी विषय की इच्छा
नहीं रखनी चाहिए।
आत्मनैव सहायेन सुखार्वा विचरेदिह!
नाभिननदेह परणं नाभिनन्देत जोवि््॥ १२॥
इस संसार में आत्मा कौ ही सहायता से (अर्थात्
एकाकी) पोक्ष की इच्छा करते हुए विचरना चाहिए। न तो
मृत्यु से प्रसन्न होना चाहिए और न जन्म प्राप्त करने से।
कालपेव प्रतीक्षेय मिदेशम्भुकको यथा
नाध्येतव्वं न वक्तव्य श्रोतव्यं न कदाचन॥ १३॥
एवं ज्ञात्वा परो योगी ब्रह्मभूयाय कल्पते।
जैसे सेवक स्वामी के आदेश की प्रतोक्षा करता रहता है,
उसी प्रकार केवल काल या मृत्यु की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
वेदों का अध्ययन, उपदेश और श्रवण नहीं करना चाहिए-
ऐसा ज्ञान रखकर तत्पर रहने वाले संन्यासी, ब्रह्मत्व प्रात
करते हैं अर्थात् उन्हें मुक्ति मिल जाती है।
एकवास्राथवा विद्वान् कौपीनाच्छादनस्तथा॥ १४॥
पुण्ड शिखी वाथ धवेविदण्डी मिष्यरिषहः।
क्ावायवासाः सततख्यानयोगपरायणः॥ १५॥
ग्राघाने वृक्षपूले वा वमेहेवालवेऽपि वा।
सपः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानवोः॥ १६॥
विद्वान् संन्यासी एकाद रहे या एकवखी अधवा कौपीन
धारण करे। मस्तक में मुंडन कराकर एक शिखा रखे।
गृहत्यागी होकर त्रिदण्ड ( वाक्, मन और कामरूपी दण्ड)