* अध्याय ६३ *
श्रीविष्णुकी त्रैलोक्यमोहन मन्त्रसमूहसे प्रतिष्ठा
करे। उनके द्विभुज विग्रहके वाम हस्तमें गदा और
दक्षिण हस्तमें अभयमुद्रा होनी चाहिये। यदि
चतुर्भुज रूपकी प्रतिष्ठा की जाय, तो दक्षिणोर्ध्वं
हस्तमें चक्र और वामोर्ध्वे पाञ्चजन्य शद्ध होना
चाहिये। उनके साथ श्री एवं पुष्टि, अथवा
बलराम, सुभद्राकी भी स्थापना करनी चाहिये।
श्रीविष्णु, वामन, वैकुण्ठ, हयग्रीव और अनिरुद्धकी
प्रासादे, घरमे अथवा मण्डपे स्थापना करनी
चाहिये । मत्स्यादि अवतारयोको जल-शय्यापर
स्थापित करके शयन करावे। संकर्षण, विश्वरूप,
रुद्रमूर्तिलिज्र, अर्धनारीश्वर, हरिहर, मातृकागण,
भैरव, सूर्य, ग्रह, विनायक तथा इन्द्र आदिके
द्वारा सेवनीया गौरी, चित्रा एवं ' बलाबला'
विद्याकी भी उसी प्रकार स्थापना करनी
चाहिये ॥ ७ -१२॥
अब मँ ग्रन्थकी प्रतिष्ठा ओर उसकी लेखन-
विधिका वर्णन करता हूँ। आचार्य स्वस्तिक-
मण्डलम शरयन्त्रके आसनपर स्थित लेख्य, लिखित
पुस्तक, विद्या एवं श्रीहरिका यजनं करे । फिर
यजमान, गुरु, विद्या एवं भगवान् विष्णु और
लिपिक (लेखक) पुरुषकी अर्चना करे । तदनन्तर
पूर्वाभिमुख होकर पद्चिनीका ध्यान करे ओर
चाँदीकी दावातमें रखी हुई स्याही तथा सोनेकी
कलमसे देवनागरी अक्षरोंमें पाँच श्लोक लिखे।
फिर ब्राह्मणोंको यथाशक्ति भोजन करावे और
अपनी सामर्थ्यके अनुसार दक्षिणा दे। आचार्य,
विद्या और श्रीविष्णुका पूजन करके लेखक पुराण
आदिका लेखन प्रारम्भ करे। पूर्ववत् मण्डल
आदिके द्वारा ईशानकोणमें भद्रपीठपर दर्पणके
ऊपर पुस्तक रखकर पहलेकी ही भाँति कलशोंसे
सेचन करे। फिर यजमान नेत्रोन््मीलन करके
शय्यापर उस पुस्तकका स्थापन करे। तत्पश्चात्
पुस्तकपर पुरुषसूक्त तथा वेद आदिका न्यास
करे॥ १३--१८॥
तदनन्तर प्राण-प्रतिष्ठा, पूजन एवं चरुहोम
करके, पूजनके पश्चात् दक्षिणासे आचार्य आदिका
सत्कार करके ब्राह्यण-भोजन करावे । उस ग्रन्थको
रथ या हाथीपर रखकर जनसमाजके साथ नगरमे
घुमावे। अन्तमे गृह या देवालये उसे स्थापित
करके उसकी पूजा करे । ग्रन्थको वस्त्रसे आवेष्टित
करके पाठके आदि-अन्तमें उसका पूजन करे।
पुस्तकवाचक विश्चशान्तिका संकल्प करके एक
अध्यायका पाठ करे। फिर गुरु कुम्भजलसे
यजमान आदिका अभिषेक करे । ब्राह्मणको पुस्तक-
दान करनेसे अनन्त फलकी प्राप्ति होती है।
गोदान, भूमि-दान और विद्यादान-ये तीन
अतिदान कहे गये हैँ । ये क्रमशः दोहन, वपन
और पाठमात्र करनेपर नरकसे उद्धार कर देते हैं।
मसीलिखित पत्र-संचयका दान विद्यादानका फल
देता है और उन पत्रोंकी एवं अक्षरोंकी जितनी
संख्या होती है, दाता पुरुष उतने ही हजार
वर्षोतक विष्णुलोकर्मे पूजित होता है। पञ्चरात्र,
पुराण ओर महाभारतका दान करनेवाला मनुष्य
अपनी इक्कीस पौदिर्योका उद्धार करके परमतत्त्वमें
विलीन हो जाता है ॥ १९--२६॥
इस प्रकार आदि आरेय महापुराणे “विष्णु आदि देवताओंकी ्रतिष्ठाकी सामान्य विधिका वर्णन”
नामक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ६३॥
मनी, 8 अर)