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वाराणासी माहात्म्य |] [ १४५

झाड़ियों से युक्त था । गुल्मो के बीच में लीन' होने वाले मृगो के समु-

दाय बाला-सम्मोह को प्राप्त देहधारियों को अपवर्गको देने बालाथा ।

चन्द्रमा की किरणों के समान धवल मनोज्ञ तिलकों से तथा सिन्दूर

क्‌ कुम और कुसुम्भ के तुल्य अशोकों से-चामीकर (सुवर्ण) की आभा

के समान कणिकारोंसे ओर परम विशाल शाखाओं के द्वारा फुल्ल

अरबिन्दों से रचित उद्यान था । कहीं पर तो रजत पर्णो की आभावाले

कही पर द्रमों के सहल कहीं पर सुवर्णं के समान पुष्पों से समाचित

भूतल वाला उद्यान था ।४० ४२।

पुन्नागेषु द्विजगणविरुतं रक्तशोकस्तवकभ रनमितम्र्‌ ।

रम्योपान्तं श्चमहूरपवनं फुल्याब्जेषु भ्रमरविलसितस्‌ ।४३

सकलभुवनभर्ता लोकनाथस्तदानीन्तु-

हिमशिखिरपुत््या: साद्ध भिष्टेगेणेशेः ।

विविधतरुविशालं मत्तहृष्टान्यपृष्ट

मुपवनतरुरम्यं दशयामास देव्याः ।४४

उद्यानं दशितं देव ! शोभया परया यतम्‌ ।

क्षेत्रस्य तु गुणान्‌ सर्वान्‌पुनवक्तुमिहाहसि ।४५

अस्य क्षेत्रस्थ माहात्म्यम विमुक्तस्य तत्तथा ।

श्रत्वापिहिनमे तृप्तिरतो भूयो वदस्व मे ।४६

इदं गुह्यतमं क्षत्रं सदां वाराणसी मम ।

सर्वेषामेव भूतानां हेतु मोक्षस्य सवेदा ४७

अस्मिन्‌ सिद्धाः सदा देचि ! मदीयं ब्रतमास्थिताः ।

नानालिङ्कधरा नित्यं मम लोकाभिकाङ किणः ।४८

अभ्यसन्ति परं योगं मुक्तात्मनो जितेन्द्रियाः ।

नानावृक्षसमा कीणे नानाविहगकूलिते ॥४६

बहू दिव्य उद्यान ऐसा मनोरम था जिसमे पृन्ना्गों मेँ द्विजगणों

(पक्षियों) का कूजन हो रुहा था और जो रक्तं अशोको के स्तबकों के

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