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+ दरमहा + १२९

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की । तख मैंने अपने स्वामी महेश्वर महारुद्रसे युक्त हों ।' मुनिश्रेष्ठ ! मेरी ऐसी बात सुनकर

फिर कहा--'देव ! आप ऐसे जीवॉकी करुणासागर महादेवनी हैस पड़े और

ॐ तत्काल इस प्रकार बोले ।

महादेवी कहा--विधातः । में जन्म

और मृत्युके भयसे युक्त अदोभन जीबोंकी

सृष्टि नहीं करूँगा; क्योंकि वे कोक अधीन

ह्ये दुःखके समुद्रे इले रहेंगे । मैं तो दुःखके

सागरमें इवे हुए उन जीवॉका उद्धारमात्र

करूँगा, गुरूका स्वरूप धारण करके उत्तम

ज्ञान प्रदानकर उन सबको संसार-सागरसे

पार करूँगा । प्रजापते ! दुःखे डूबे हुए सारे

जीवकी सृष्टि तो तुम्ही करो । मेरी आज्ञासे

इस कार्यमें प्रवुत्त होनेके कारण तुम्हे माया

नहीं बाँध सकेगी।

मुझसे ऐसा कहकर श्रीमान्‌ भगवान्‌

नील्लोहित महादेव मेरे देखते-देखते

पार्षदोंके साथ्र वहसि तत्काल

सृष्टि कीजिये, जो जन्म और मृत्युके भयसे तिरोहित हो गये। (अध्याय १५)

स्वायम्भुव मनु और शतरूपाकी, ऋषियोंकी तथा दक्षकन्याओंकी

संतानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन

ब्रह्माजी कहते हैं--नारद ! तदनन्तर पुरूुषोंकी सृष्टि की। अपने दोनों नेत्रॉसे

सृष्टि की। पर्वतो, समुद्रो ओर वृक्षों अत्रिको, प्राणोंसे दक्षकों, गोदसे तुमको,

आदिको उत्पन्न किया। कलासे लेकर छायासे कर्दम मुनिको तथा संकल्पसे समस्त

युगपर्यन्त जो काल-विभाग हैं, उनकी रचना साधनोकि साधन धर्मको उत्पन्न किया।

की। मुने ! उत्पत्ति और विनाशवाले और मुनिश्रेष्ठ ! इस तरह इन उत्तम साध्कोँकी

भी बहुत-से पदाथोंका मैंने निर्माण किया। सृष्टि करके महादेवजीकी कृपासे यैने

परंतु इससे मुझे संतोष नहीं हुआ । तब साम्ब अपने-आप्को कृतार्थं माना। तत !

शझिव्रक्ता ध्यान करके मैंने साथनपरायण तत्पश्चात्‌ संकल्पसे उत्पन्न हुए धर्म पेरी

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