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साधारण अभ्युदय कौतंन | [ १

हि

ॐ. र र

यादिव्येतिपितुर्नामगो त्रेदं भक रोन्यसेत ।२४

पितृ ना वाहयिष्यामि कुचित्युक्तस्तु ते पुनः ।

उशन्तस्त्वा तथायन्तु ऋग्ध्यामावाहयेत्‌पितु (न्‌ ।२५

यादिव्येत्यध्यमुत्‌ सृज्य दद्याद्‌ गन्धादिकांस्ततः ।

टस्तात्तदुदकं पूवं दत्त्वा संश्रवमादितः ।२६

पितृपात्रे निधायाथन्युम्जमृत्तरतोन्यसेत्‌ ।

पित्रुभ्यः स्थानमसीतिनिधाय परिषेचयेत्‌ ।२७

तत्रापि पूववत्‌ कूयदि ग्निकायं ` विमत्सरः ।

उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामाहूत्य परिवेषयेत ।२े८ `

जो श्रद्धापृबंक केबल जल भी दिया यया है. वह भी अक्षय ही

उपकालोन हो जाता है । इसी भाँति से अध्य-पिण्ड भोज्य ' आदि के

कर्म में पितृगणों के लिए राजत माना गया है ।२२। भगवान्‌ शिक के

नेत्रों से उत्पत्ति होती है इसी कारण से यह पितृगण का प्रिय है 4 जो

अयजूल है उसे यत्नपूर्वक देव कार्यो से वजित करना - चाहिष्‌ २३।

इस रीति से पात्रों का सरूल्प करके लन्भानुसार मत्सरता के भाव से

रहित होकर ही 'या दिव्या---इत्यादि मन्त्र से पिता के नाम गोत्रों

से हाथ में दर्भ ग्रहण करने वाले को न्थास करना चाहिए ॥२४।

“पितृन्‌ आवाहयिष्यामि'--अर्थात मैं अपने पितृगणों का आवाहन

करूगा--+इस रीति से अनुज्ञा प्राप्त करने के लिये पूछो । जब ब्राह्मण `

कह देवरे कि "कुरु -अर्थात्‌ आवाहन करो तभी आवाहन पूछकर प्राप्ता.

नुज होकर ही करे । "उशन्तस्त्वा' 'तथायन्तु'-इन दो ऋचाओंके- द्वारा -

पितुगण का आवाहन करे ।२५। 'या दिन्या'--इस मन्त्र को पढ़कर :

अध्य का उत्सर्गं करके फिर पीछे गन्ध आदिकं अन्य पृजनोषचारोंका

देना चाहिए । हाथ से पूर्व में उस जल कोदेकर आदि से: संश्रव को

पितृगण के पात्र में रखकर उत्तर की ओर न्युब्ज न्यास करना -चाहिण्‌।

'पितृभ्यास्थनमसि ----इस मन्त्र से रखकर परिषेचन करे ।२६-२७।

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