जाहापर्व ]
* भगवान् सुर्थमारायणके सौम्य रूपकी कथा «
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कल्याणकारी देव मधुर वाणीमें बोले--- 'देवगण ! आप च्या
चाहते है ?' तब हमने कहा--'प्रभो ! आपके इस प्रचण्ड
तपर रूपको देखनेमें कोई भो समर्थ नहीं है। अतः संसारके
कल्याणके लिये आप सौम्य रूप धारण करें।' दैवताओकी
ऐसी प्रार्थना सुनकर उन्होंने 'एकमस्तु' कहकर सभीको सुख
देनेबात्म उत्तम रूप धारण कर लिया।
सुमन्तु मुनिने कहा--राजन् ! सांख्ययोगका आश्रय
ग्रहण करनेवाले योगी आदि तथा मोक्षकी अभिलाषा
रखनेवाले पुरुष इनका ही ध्यान करते हैं। इनके ध्यानसे
बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। अग्निहोत्र, वेदपाठ और प्रचुर
दक्षिणासे युक्त यज्ञ भी भगवान् सूर्यकी भक्तिके सोलहवीं
कलाके तुल्य भी फल्दायक नहीं है। ये तीथोंकि भी तीर्थ,
मङ्गलोके भी मङ्गल और पवित्रोको भी पवित्र करनेवाले हैं।
जो इक्क आराधना करते है, वे सभी पापोंसे मुक्त होकर सूर्य
ल्त्रेकको प्राप्त करते हैं। वेदादि शास्त्रोंमे भगवान् दिवस्पति
उपासना आदिके द्वारा जिस प्रकार सुलभ हो जाते हैं, उसी
प्रकार सूर्यदेव समस्त त्तरकोकि उपास्य हैं।
राजा इातानीकने पृषछठा-- पुने ! देवता तथा ऋषियोंने
किस प्रकार भगवान् सूर्यका सुन्दर रूप बनवाया? यह
आप बतायें।
सुमन्तु मुनि बोले--राजन्! एक समय सभी
ऋषियेनि ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे प्रार्थना की कि ब्रह्मन् !
अदितिके पुत्र सूर्यनारायण आकाशमें अति प्रचण्ड तेजसे तप
रहे हैं। जिस प्रकार नदीका किनारा सूख जाता है, वैसे ही
अखिल जगत् विनादाको प्राप्त हो रहा है, हम सब भी अति
पीड़ित हैं और आपका आसन कमल-पुष्प भी सूख रहा है,
तीनों लोकॉमें कोई सुखी नहीं है, आत: आप ऐसा उपाय करें,
जिससे यह तेज शान्त हो जाय ।
ख्रह्माजीने कहा--मुनीधरों ! सभी देवताओंके साथ
आप और हम सब सूर्यनारायणकौ शरणमें जायें, उसी
सबका कल्याण है । ब्रह्माजीकी आज्ञा पाकर ब्रह्मा, विष्णु तथा
शंकर सभी देवता और ऋषिगण उनकी शारणमें गये और
उन्होंने भक्तिभावपूर्वक नम्न होकर अनेक प्रकारसे उनकी स्तुति
की । देवताओंकी स्तुतिसे सूर्यनारायण प्रसन्न हो गये।
सूर्यभगवान् बोले--आपलोग वर माँगिये। उस
समय दैवताओनि यही वर माँगा कि 'प्रभो ! आपके तेजकों
विश्वकर्मा कम कर दें, ऐसी आप आज्ञा प्रदान करें ।' इन्होंने
देवताओंकी प्रार्थना स्वीकार कर त्रौ । तब विश्वकर्माने उनके
तैजको तराश कर कम किया। इसी तैजसे भगवान् विष्णुका
चक्र और अन्य देवताओंके शूल, शक्ति, गदा, वञ्च, बाण,
धनुष, दुर्गा आदि देवियोंके आभूषण तथा शिविका (पालकी) ,
परशु आदि आयुध बनाकर विश्वकर्माने उन्हें देवताओंको
दिया।
भगवान् सूर्यका तेज सौम्य हो जानेसे तथा उत्तम-उत्तम
आयुध प्राप्त कर देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने पुनः
उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति की।
देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न हो भगवान् सूर्यने और भी
अनेक वर उन्हें प्रदान किये। अनन्तर देवताओंने परस्पर
विचार किया कि दैत्यगण वर पाकर अत्यन्त अभिमानी हो गये
हैं। वे अवदय भगवान् सूर्यकों हरण करनेका प्रयज करेंगे।
इसलिये उन सबको नष्ट करनेके लिये तथा इनकी रक्षाके लिये
हमें चाहिये कि हम इनके चारों ओर खड़े हो जायै, जिससे ये
दैत्य सूर्यको देख न सके । ऐसा विचारकर स्कन्द दण्डनायकका
रूप धारणकर भगवान् सूर्यके बायीं ओर स्थित हो गये ।
भगवान् सूर्ये दष्डनायककयो जीवोंके शुभाशुभ कर्मोको
लिखनेका निर्दा दिया। दण्डका निर्णय करने तथा
दण्डनीतिका निर्धारण करनेसे दष्डनायक नाम पड़ा । अग्निदेव
पिगलवर्णके होनेके कारण पिगल नामसे प्रसिद्ध हुए और
इत्यादि समस्त लोकोंमे आपका हौ प्रचष्ड एवं प्रदीप तेज प्रकाशित है। इन्द्रांदि देवताओंसे भी दुर्निगीक्ष्य, भूगु, अग्रि, पुलह आदि ऋषियों एवे
सिद्धोंद्राय सेतरित अत्यन्त कल्याणकारी एवं शान्त रूपवाले आपको नमस्कार है। हे देव! आपका यह रूप पाँच, दस अपया एकादश इन्द्रियो
आदिसे आण्य है, उस रूपकी देवता सदा यन्दना करते रहते हैं। देव ! विश्वलश्टा, विश्वे स्थित तथा
आपके अचिन्त्य रूपको इन्द्रादि
देखता अर्चना कयते रहते हैं। आपके उस रूपको नमस्कार है। ताथ ! आपका रूप यज्ञ, देवता, लोक, अत्कारा-- इन स्रो परे है, आप दुरलिक्रम
जामसे विख्यात हैं, इससे भी परे आपका अन्त रूप है, इसीलिये आपका रूप परमात्पा नामसे प्रसिद्ध है। ऐसे रूपजाले आपको नमस्कार है।
है अनादिनिधन जाननिधे ! आपका रूप अधिज्ञेय, अचिन्त्य, अव्यय एवं अध्यात्मगत है, आपको नमस्कार है। हे कररणोकि कारण, पाप एवं रोगके
विनाशक, वब्दितोंके % वन्द, पञ्कदशात्भक, सभीके लिये श्रेष्ठ करदाता तथा सभी प्रकार्के बल देनेवाले ! आपको सदा बार-बार नमस्कार है।