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श्श्८ » पुराणं परमं पुण्य भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्ख

भगवान्‌ सूर्यनारायणके सौम्य रूपकी कथा, उनकी स्तुति ओर

परिवार तथा देवताओंका वर्णन

राजा शतानीकने कहा--मुने ! भगवान्‌ सूर्यकी कथा

सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती, अतः आप पुनः उन्हींके गुणों

और चरित्रोंका वर्णन करें।

सुमन्तु मुनि बोले--राजन्‌ ! पूर्वकालमें ब्रह्मजीने

भगवान्‌ सूर्यकी जो पवित्र कथा ऋषियोंको सुनायी थी, उसे मैं

आपको सुनाता हूँ। वह कथा पापोंको नष्ट करनेवाली है--+

एक समय भगवान्‌ सूर्यके प्रचण्ड तेजसे संतप्त हो

ऋषियोंने ब्रह्मजीसे पूछा-- ब्रह्मन्‌ ! आकादामें स्थित यह

अग्रिके तुल्य दाह करनेवाला तेज:पुञ्ञ कौन है ?'

ब्रह्माजी बोले--मुनीश्वरो ! प्रलक्के समय जब सारा

स्थावर -जङ्गम जगत्‌ नष्ट हो गया, उस समय सर्वत्र अन्धकार-

ही-अन्धकार व्याप्त था। उस समय सर्वप्रथम बुद्धि उत्पन्न हुई,

बुद्धिसे अहंकार तथा अहंकारसे आकाशादि पशञ्ममहाभूतोंकी

उत्पत्ति हुई और उनसे एक अण्ड उत्पन्न हुआ, जिसमें सात

लोक और सात समुद्रोंसहित पृथ्वी स्थित है। उसी अष्डमें

स्वयं ब्रह्मा तथा विष्णु और शिव भो स्थित थे। अन्धकारसे

सभी व्याकुल थे। अनन्तर सब परमेश्वरका ध्यान करने लगे।

ध्यान करनेसे अश्वकास्कों हरण करनेवाला एक तेजःपुञ्ज

प्रकट हुआ। उसे देखकर हप सभी ठसकी इस प्रकार दिव्य

स्तुति करने लगें--

आदिदेवोऽसि देवानापीश्चरा्णां त्वपीश्चरः ।

आदिकर्तासि भूतान रेवदेव सनातन ॥

सरितः सागराः दौला विदयुदिन्धनंषि च ।

प्रख्यः प्रभवश्चैव व्यक्ताव्यक्तः सनातनः ॥

दुर्निरीक्ष्य॑सुरेन्द्राणां यदूप॑ तस्य ते नमः ॥

सुरसिद्धगणैर्जुएं भृग्वत्रिपुलहादिधि: ।

झुर्भ॑ परपमच्यर्प यदप तस्प ते नमः ॥

पञ्चातीतस्थितं तदै दद्ौकादश एव च।

अर्धमासमतिक्रम्य स्थितं तत्सूर्यपष्डले ।

तस्यै रूपाय ते देव प्रणता: सर्वदेवताः ॥

चिश्चकृ्धिश्चभूतं च विश्वानरसुरार्चितम्‌ ।

विश्नस्थितपचिन्त्यं॑च यद्रूपं तस्य ते नमः॥

पर यज्ञात्परं देवात्परे ह्लेकात्पर॑ दिवः ।

दुरतिक्रमेति य: ख्यातस्तस्पादपि परंपरात्‌ ।

परमात्मेति विख्यातं यद्यं तस्य ते नमः ॥

अविज्ञेयमचिन्य॑ च अध्यात्पगतमख्ययम्‌ ।

अनादिनिधने देखे द्रं तस्य ते नपः॥

जघो नमः कारणकारणाय नमो नमः पापविनाक्लनाय ।

नमो नमो वन्दित्तवन्दनाय नमो नमो रोगविनाझनाय ॥

नयो नः सर्ववरप्रदाय नपो नपः सर्ववरप्रदाय ।

नमो नपो ज्ञाननिथे सदैव नमो नमः पक्कदझात्मकाय ॥

(ऋय १२३। ११-- २४)

इस प्रकार हमारी स्तुतिसे प्रसन्न हो वे तैजस-रूप

जीवनं सर्वसत्त्वानां देवगन्धर्वरक्षसाम्‌ ।

मुनिकिन्नरसिषद्धाना तथैवोरगपक्षिणाम्‌ ॥

त्वै ब्रह्मा त्वै महादेवस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः ।

वायुरिन्रश्च सोपश्च विवस्वान्‌ वरुणस्तथा ॥

त्वै कालः सुष्टिकर्ता च हर्ता त्रात्ता प्रभुस्तथा ।

१- स्तुतिका भाव इस प्रक्स्‌ है--

है सनातन देवदेव ! आप हौ समस्त चराचर प्राजियोंके आदि स्वरष्टा एवं ईश्वरोके ईश्वर तथा आदियेय हैं। देवता, गन्धर्व, राक्षस, मुनि, किन्नर,

सिद्ध, जाग तथा तिर्यक्‌ योतियोंकि आप ही जीवनाधार हैं। आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, प्रजापति, वायु, इन्र, सोम, वरुण तथा काल हैं एवं जातके

सषटा. संह, पालनकता कैर सबके शासक घी आप ही हैं। आप ही स्वग, नदी, पर्य, विद्युत्‌, इन्द्रधनुष इत्यादि सब कुछ है । प्रलय, प्रपव

व्यक्त एवं अव्यक्त भी आप ही हैं। ईश्वरसे परे विद्या, विध्यास्र परे शिव तथा शिवसे परतर आप परमदेव हैं। हे परम्गरत्मन्‌ ! आपके पानि, पाद्‌,

अश्षि, सिर, मुख सर्वत्र ~ चतुर्दिक्‌ व्याप्त हैं। आपकी देदीप्यमाय सहस्नों किएजें सब ओर व्याप्त हैं। भूः, भुक, स्वः, महः, जनः, तपः तथा सत्य

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