१२८ यजुर्वेद संहिता
५६२. अग्ने दिवो अर्णमच्छा जिगास्यच्छा देवाँ? ऊचिषे धिष्ण्या ये । या रोचने
परस्तात् सूर्यस्य याश्चावस्तादुपतिष्ठन्त ऽ आपः ॥४९ ॥
` ह अग्निदेव ! आप दिव्यलोक के अपृतरूपी जल को उत्तमरीति से धारण करते है । बुद्धि के प्रेरक जो
प्राणस्वरूप देव हैं, उनके समक्ष भी आप गतिशील होते हैं । प्रकाशमान सूर्वषण्डल में स्थित, सूर्य से आगे (परे)
जो जल है तथा जो जल इसके नीचे है, उस समस्त जल मे आप विराजमान हैं ॥४९ ॥
५६३.पुरीष्यासो अग्नयः प्रावणेभिः सजोषसः । जुषन्तां यज्ञमद्रहोनमीवा 5 इषो महीः ।।
प्रजापालक, समान विचारशीलों मे प्रीतियुक्त, द्रोह भावना से रहित, ये अग्नियाँ इस यज्ञ में आरोग्यप्रद
वनौषधियों से युक्त हविष्यात्र को पर्याप्त मात्रा में ग्रहण करें ॥५० ॥
५६४. इडामग्ने पुरुद& स ४ सनिं गोः शश्वत्तम हवमानाय साध । स्यान्नः
सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥५१ ॥
है अग्निदेव ! विभिन्न यज्ञीय कार्यो को सिद्ध करने वाले अन्न एवं गौ ओं (उनसे प्राप्त दूध, दधि घृतादि) को
दान रूप में स्वीकार करें । हे अग्निदेव ! याजकं को सुन्दर सन्तति, धन-धान्य प्रदान करने वाली आपकी श्रेष्ठ
बुद्धि हमारे लिए कल्याणकारी हो ॥५१ ॥
५६५. अयं ते योनिर्क्रत्वियो यतो जातो अरोचथाः । तं जानन्नग्न5 आ रोहाथा नो
वर्धया रयिम् ॥५२॥
हे अगिदेव ! ऋतु विशेष मे सिद्ध हुए गार्हपत्य अग्नि आपके उत्पति स्थान हैं, आप जिस गार्हपत्य से उत्पन्न
होकर प्रकाशित होते हैं, उसे जानकर अपने स्वान पर आरोहण करे तत्पश्चात् हमारे वैभव में वृद्धि करें ॥
५६६. चिदसि तया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद । परिचिदसि तया देवतयाड्रिरस्वद्
श्रुवा सीद् ॥५३ ॥
हे इष्टके ! आ, सुखसाधनं को संगृहीत करने वाली है । वावदेवता द्वारा प्राणों के संचार के समान ही आप
निर्धारित स्थान पर विराजित हो ! हे इष्टके ! आप सभी ओर से अपने स्थान पर विराजित हों । हे इष्टके ! आप
सभी ओर से साधनों को एकत्र करने वाली होकर वाणी के देवता द्वारा अंगों मे संचरित प्राण के समान ही उपयुक्त
स्थत पर विराजमान हों ॥५३ ॥
५६७. लोकं पृण छिद्रं पृणाथो सीद ध्रुवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्
योनावसीषदन् ॥५४ ॥
हे इष्टके ! आप गार्हपत्य के चयन स्थल में रिक्त स्थान को पूर्ण करें, छिद्र को भर दें तथा यहाँ सुदृढ़तापूर्वक
स्थापित हो । इन्द्रदेव, अग्निदेव और वृहस्पतिदेव ने यह स्थान आपके लिए नियुक्त किया है ॥५४ ॥
[य्कुष्ड निर्माण के समय डटो को निर्धारित स्थल पर उत्तम रीति से रखने का-चिति निर्माण का संकेत है ॥
५६८. ता ऽ अस्य सूददोहसः सोम * श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानां विशख्िष्वा
रोचने दिवः ॥५५ ॥
देवलोक में स्थित विविध (प्राण-पर्जन्य आदि शक्तिधाराएँ) अन्न से युक्त वे प्रख्यात जल परवाह देवताओं
के उदयकाल (संवत्सर) में स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी तीनों लोकों में इस यज्ञ से सम्बन्धित सोम को श्रेष्ठ विधि
से परिपूर्ण करते हैं ॥५५ ॥