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+ स्वायम्भुव मनुकी यंश-परम्परा तश्चा अलक्ष्मी-पुत्र दु:सहके स्थान आदिक चन +

की; ठनके नाम ये हैं, सुनो-- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति,

तुष्टि. पुटि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु,

शान्ति, सिद्धि तथा तेरहवों कीर्ति । इन सबको

धर्मने अपनी पत्नोके रूपमें ग्रहण किया। इनसे

शेष जौ ग्यारह छोटी कन्याएँ थीं, उनके नाम इस

प्रकार हैं-ख्याति, सती, सम्धूति, स्मृति, प्रीति,

क्षमा, संनति, ऊर्जा, अनसय. स्वाहा और स्वधया ।

इन सबको क्रमशः भृगु, महादेवजी, मरीचि,

अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ट, अत्न,

अग्नि और पितरोंने ग्रहण किया। श्रद्धाने कामको,

लक्ष्मीने दर्पको, धृतिने नियमको, तुष्टिने संतोष

और पुष्टिने लौभको उत्पन्न करिया। मेधासे श्रुतका,

क्रियासे दण्ड, न्य और विनयका, बुद्धिसे जोधका,

लज्जासे विनवका, चपुसे व्यवस्तायका, शान्तिसे

क्षेमका, सिद्धिसे सुखका और कॉौर्तिसे यशका

जन्म छुआ। ये सभी धर्मके पुत्र हैं।

कामस उसकी पत्नी रतिने हर्ष नामक पुत्र

उत्पन्न किया, जो धर्मका पौत्र कहलाया। अधर्मकों

स्त्री हिंसा थो। उसके गर्भसे अनृत चामक पुत्र

और निर्क्रति नामवाली कन्या उत्पन्न हुई। फिर

इन दोनोंसे दौ पुत्रों तथा दो कन्या्ओका जन्म

हुआ। पुतन्नोंके नाम थे नरक और भय तथा

कन्याओंके नाम थे माया और वेदना। ये उतकी

पत्लियाँ हुईं। इनमें भयकों स्त्री मायाने सब

प्राणियोंका संहार करनेवाले ' मृत्यु ' नामकं पुत्रको

उत्पन्न किया और बेदनाने नरकके संसर्गसे दुःख

नामक पुत्रकौ जन्म दिवा। मृत्युसे व्याधि, जरा,

शोक, तृष्णा और क्रोध उत्पन्न हुए। ये सब

अधर्मरूप हैं और दुःखके हेतु बतलाये जाते हैं।

इनके स्त्री और पुत्र नहीं हैं। वे सभी ऊर्म्वरेता हैं।

अलक्ष्मीके चौदह पुत्र हैं, जिनमें तेरह तो

क्रमशः दस इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहद्धारमें

पृथक्पृथक्‌ रहते हैं। चौदह्ैका नाम दुःसह है,

वह पनुष्याँके गृहोंमें निवास करता है। वह

भूखसे दुबल, नीचा मुख किये, नंग-भ्रडृंग और

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निथड़ा लपेटे रहता है; उसकी आवाज कौएके

समान है। जब ब्रह्माजीने उसे उत्पन्न किया, ततर

-वह सबको खा जानेके लिये उद्यत हुआ) वह

तमोगुणका भंडार था और बड़ी बड़ी दाढ़ोंके

कारण अत्यन्त विकराल जान पड़ता था। डसका

मुँह फैला हुआ था, इससे वह और भी भर्बकर

जान पड़ता था। उसको आहारके लिये उत्सुक

देख लोकपितामह ब्रह्माजीने कहा--' दुः सह ! तुझे

इस संसारा भक्षण नहीं करता चाहिये। तू अपना

क्रोध शान्त कर । रजोगुणकी कला स्वा! और इस

तामसी वृत्तिकों भी छोड़ दे।'

दुःसहने कहा--जगदीश्वर! मैं भूखसे दुर्जल

हो रहा हूँ और प्यास भी मुझे जोरसे सता रही

है। नाथ! बताइये-मुझे कैसे तृप्ति हो, मैं किस

तरह बलवान्‌ वनुँ? तया मे| निवास स्थान कौन

है, जहाँ मैं सुखसे रह स्वँ ?

ब्रह्माजीने कहा--बेटा ! मनुष्बोंका घर तुम्हारा

निवास-स्थान है, अधर्मपराबण पुरुष तुम्हारे बल हैं

तथा नित्मकर्मके त्थाएसे ही तुम्हारी पुष्टि होगी।

मर्म-ब्रण और फोड़े तुम्हारे वस्त्र होंगे। अब तुम्हारे

लिये आहारक व्यवस्था करता हूँ। जिसमें क्रिसी

प्रकारक क्षति पहुँची हो, कीड़े पड़ गये हों, कुत्तोंने

दृष्ट डाली हो, जो फूटे बर्तनमें रखा हो, जिसे

मुँहसे फुक-फूँककर ठंडा किया गया हो, जो ला

और अपक़ हो, जिसमेंसे पानो छूटता हौ, जिसको

किसने चख लिया हो, जो शुद्धतापूर्वक तैयार न

किया गया हो, जिसे फटे आसनोंपर बैठकर भोजन

किया गया हो, जो अपने समीपवर्तोकों वहीं दिया

गया हो, विपरीत दिशा अथवा कोणकी ओर मुँह

करके खाया गया हो, दोनों सन्ध्याओंके समय और

नाच, बाजा एबं स्थर-तालके साथ जिसको खाबा

गया हो, जिसे रजस्वला स्त्रोके द्वारा लाया, खाया

अथवा देखा गया हो तथा जो और किसी दोषमे

युक्त हों--ऐसा कोई भी खाने-पीनेका सामान

तुम्हारो पुष्टिके लिये मैं तुम्हें देता हूँ।

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