एवं च मथनात्तत्र मन्दरोऽधः प्रविश्य च।
आधारेण विना राजन् तं दृष्टवा सहसा हरिः ॥ १९
सर्वलोकहितार्थाय कूर्मरूपमधारयत्।
आत्ानं सप्प्रवेश्याथ मन्दरस्य गिरेरधः ॥ २०
प्रविश्य धृतवान् शैलं मन्दरं मधुसूदनः ।
उपर्याक्रान्तवाञ्ौलं पृथग्रूपेण केशवः॥ २९१
चकर्थ नागराजं च देवैः सार्धं जनार्दनः।
ततस्तै त्वरया युक्ता पमन्धुः क्षीरसागरम्॥ २२
यावच्छक्त्या नृपश्रेष्ठ वलवन्तः सुरासुराः ।
मध्यपानात्ततस्तस्मात् क्षीराब्थेरभवश्रुप॥ २३
कालकूटमिति ख्यातं विषमत्यन्तदुस्सहम्।
त॑ नागा जगृहुः सर्वे तच्छेषं शङ्धरोऽग्रहीत् ॥ २४
नारायणाञ्जया तैन नीलकण्ठत्वपाप्रवान्।
एेरावतश्च नागेन्द्रो दरिश्चोच्चैःश्रवाः पुनः॥ २५
द्वितीयावर्तनाद्राजत्रुत्पन्नाविति नः श्रुतम्।
तृतीयावर्तनाद् राजन्रष्सराश्च सुशोभना।। २६
चतुर्थात् पारिजातश्च उत्पन्न: स पहाद्रमः।
पञ्चमाद्धि हिमांशुस्तु प्रोत्थितः क्षीररगगरात्॥ २७
त॑ भवः शिरसा धत्ते नारीवत् स्वस्तिकं नृप।
नानाविधानि दिन्यानि रब्रान्याभरणानि च ॥ २८
क्षीरोदधेरुत्थिताश्च गन्धर्वाश्च सहस्रशः ।
एतान्. दृष्ट्रा तथोत्पत्रानत्याश्चर्यसपन्वितान् ॥ २९
अधवञ्चातहर्षास्ते तत्र॒ सर्वे सुरासुराः!
देवपश्चे ततो मेधाः स्वल्पं वर्षन्ति संस्थिताः ॥ ३०
कृष्णाज्ञया च वायुश्च सुखं वाति सुरान् प्रति।
विपनिःश्वासयातेन वासकेश्चापो हता:॥ ३१
ओर नियुक्त किया। राजन्! इस प्रकार भन्थन आरम्भ
होनेपर नीये कों आधार न होनेफे कारण मन्दराचल
जलके भीतर प्रदिष्टं होकर डूब गया। पर्वल्को इच्च
देख भगवान् मधुसुदन विष्णुने समस्त लोकोंके हितके
लिये सहसा कर्मरूप धारण किया और उस रूपे
अपनेको मन्दराचलके नीचे प्रविष्ट कके. आधाररूप
हों, उस मन्दर पर्वलको धारण किया तथा दूसरे रूपमे
वे भगवान् केशव पर्वतकों ऊपरसे भी दबाये रहे और
एक अन्यरूपसे थे भगवान् जनार्दन देवताओंके साथ
रहकर नागराज बासुकिको खाँचते भी रहे। वैव वे
वलवान् देवता तथा असुर पूर्णशाक्ति लगाकर बड़े वेगसे
क्षीरसागरका मन्वत करने लगे ॥ १६--२२४५६ ब
नृपश्रेष! तदनत्तर उस मये जाते हुए क्षौरसागरसे
अत्यन्त दुस्सह 'कालकूर” नापक विष प्रकट हुआ। उस
विप्रौ सभी स्पौनि ग्रहण कर लिया। उनसे बचे हुए
विषको भगवान् विष्णुकी आज़ासे शङ्करजीने पौ लिया।
इससे कण्ठमें काला दाग पड़ निके कारण उनकी
*नीलफण्ट' संज्ञा हुईं। इसके बाद द्वितौद आरके मन्धनसे
एेखक्व गजराज और उच्चै:श्रवा घोड़ा--ये दोनों प्रकट
हुए, यह कते हमारे सुततेसें आयी है। दृतीय आवृत्तिसे
परमसुन्दरी अप्सर (उर्वशोी)-का आविभनि हुआ और
चौथी यार् महान् वृक्ष पारिणात प्रक्रट हुआ। पाँचर्यो
आवुत्तिमें क्षीरखागरसे चन्द्रमा प्रकट हुए। नश्वर ! चद्धपाको
भगवान् शिव अपने मस्तकपर धारण करते हैं; टोक उसो
श्दह जैसे नारे ललाटमें स्वस्तिक (येंदी या आभूषण)
धारण करती है। इसी प्रकार क्षोस्सागरसे नाना प्रकारके
दिव्य सत्र, आभूषण और हरो गन्धर्वं प्रकट हुए। इनं
अत्यन्त विस्मयजनक वस्तुओंकों उस प्रकार उत्पन्न देख
सधौ देवता और असुर् बहुत प्रसन्न हुए॥ २३--२९/, ॥
कदनन्तर भगवन् व्िष्णुछो आहासे मेघगण देवटाओंके
द्मे स्थिते हो मन्द् मन्द वर्षो करते लगे और देव
यून्दको सूखा देनेवाली वायु बहने गो । [इस कारण
देवता चके वहो} किंतु महामते ! वासुकि विप्रमिश्रित
कारको कयूमे कितने ही रत्य मर गये और जो कने,