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चनुर्थोऽध्यायः ४६.

देवताओं को प्रिय, प्रजापति का शरीर हो । हे सोम ! हम श्रेष्ठ पशुधन से तुम्हारा क्रय करते है । अतएव आप

हजाएं पुक्र-पौज्रों को पोषित करने योग्य सम्पत्तियों में वृद्धि करें ॥२६ ॥

(वषय बन का रद सके नही । 'स्वर्ण लौटकर आए' का भाव यही है कि पुरुवा से प्रेरित घन कराकर

प्रवहमान रहे ।|

१५५. मित्रो न 5 एहि सुमित्रध5इन्द्रस्थोरुमा विश दक्षिणमुशन्नुशन्त$» स्योनः स्योनम्‌ ।

स्वान भ्राजाङ्घारे बम्भारे हस्त सुहस्त कृशानवेते व: सोमक्रयणास्तानक्षध्वं मा वो दभन्‌॥

हे प्रिय सखा सोमदेव ! मित्रों का पोषण करने वाले आप हमारी ओर आएँ । आप सुखदायक होते हुए

प्रङ्गलदायक दाहिनी जंघा मे प्रवेश करे । ध्वनि करने वाले, सुशोभित रहने वाले, पाप के शत्रु, विश्व के पोषणकर्ता,

सर्वदा प्रसन्न रहने वाले, श्रेष्ठ हाथों वाले, शक्तिहीन प्राणियों के जीवनदाता, सोम की रक्षा करने वाते हे सात

विशिष्ट देवगण ! सोम-क्रय के लिए स्वर्णादि आपके समश्च रखे गये हैं, आप उन बहुमूल्य पदार्थों का रक्षण

करें आपको कोई कष्ट न पहुँचाए ॥२७ ॥

१५६. परि माग्ने दुश्वरिताद्वाधस्वा मा सुचरिते भज । उदायुषा स्वायुषोदस्थामपूरतो र 5अनु।॥

हे अग्निदेव ! आप हमें पाप से पूर्णतः बचाएं । आप सदाचाररूपी पुरुष को (व्यक्तित्व को) हम यजमानों

में प्रतिष्ठित करें । यज्ञादि करते हुए उत्कृष्ट आयु से सोमादि देवताओं की आयु का अनुसरण करते हुए, सोम

की प्राप्तिरूप अमरत्व प्राप्त होने से हम उत्कृष्ट हो गये हैं ॥२८ ॥ -

१५७. प्रति पन्थामपदाहि स्वस्तिगामनेहसम्‌। येन विश्वा : परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु॥

(मार्ग के प्रति कथन) कल्याणकारी, गमन करने योग्य, पाप या अपराधरूपी बाधाओं से रहित मार्ग को हम

प्राप्त करें; जिससे जाते हुए पथिकों (यजमानों ) के चोर आदि सभी शत्रुओं का निवारण हो जाता है एवं उन

सम्पदाओं को प्राप्ति होती है ॥२९ ॥

१५८. अदित्यास्त्वगस्यदित्यै सद आसीद। अस्तभ्नादह्यां वृषभो अन्तरिक्षममिमीत

वरिमाणं पृथिव्या:। आसीदद्विश्वा भुवनानि सप्राइविश्वेत्तानि वरुणस्य व्रतानि ॥३०

(पृगचर्भ आसन के प्रति कथन) हे कृष्णाजिन ! आप सम्पूर्ण पृथ्वी के चर्मस्वरूप हैं । आप पृथ्वी के छोटे

भाग यज्ञवेदी पर आसीन हों । शक्ति-सम्पन्न वरुणदेव, चुलोक और अन्तरिक्षतोक को स्थिर कर देते हैं । वे पृथ्वी

के परिमाण को माप लेते हैं । भली-भाँति सुशोभित होते हुए (सप्राट) वरुणदेव सम्पूर्ण भुवनों को परिव्याप्त कर

प्रतिष्ठित हैं । यही उनके नियत कार्य हैं ॥३० ॥

१५९. वनेषु व्यन्तरिश्चं ततान वाजमर्वत्सु पयऽ उसियासु । | वरुणो विश्चवग्निं

दिवि सूर्यमदधात्‌ सोममद्रौ ॥३१ ॥ बा व

वरुणदेव ने वन में वृक्षौ के ऊपरी भाग पर (पूर्त पदार्थों के अभाव में) आकाश को विस्तृत किया । अरं

या मनुष्यों में वीर्य (पराक्रम) की वृद्धि की । गौओं पर दुग्ध को प्रतिष्ठित किया । हृदय में संकल्पशक्ति युक्त मन

को, प्राणियों में (पाचन के लिए) जठरामि को, चुलोक में सूर्यदेव को तथा पर्वत पर सोमवल्ली को स्थापित किया ।

१६०, सूर्यस्य चक्षुरारोहाग्नेरक्ष्ण: कनीनकम्‌ । यत्रेतशेभिरीयसे भ्राजमानो विपश्चिता ॥

हे ज्ञानयुक्त तेजस्वी ! आप अश्च (किरणों ) की भाँति संचरित हों, सूर्य और अग्न के प्रकाश कौ तरह लोगों

की आँखों की पुतली पर (दृष्टि पर) आरोहित हों ॥३२ ॥

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