५५ * संक्षित ब्रह्मपुराण *
। तेल व्याप्त रहता है, उसी प्रकार
पार्थिव वस्तु है, उसे भूलोक कहा गया है; उक | कभ क
तजि ५०. १. | और पुरुष एक-दूसरेके आश्रित हो भगवान्
न वु | ५७७ शक्तिसे रिके हुए हैं। श्रोविष्णुकी शक्ति
है, बह भुवर्लोक कहा गया है । ह +0-ककननग+ अर
है। ध्रुव और सूर्यके बीचमें जो चौदह लाख | ही प्रकृति की स
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विचार करनेवाले पुरुषान स्वर्गलोक न | जल क
कहते ॥ की) लोकॉको | प्रकार भगवान् विष्णुकी शक्ति किस
नाशवान्) करती है। प्रथम
जो जन, न हज (पा 438: भाजीनमनी नि पक
०40५. 2: शक और | क्ष उत्पन्न होता है, फिर उस बृक्षसे अन्यान्य
मय जाधप माल? ब ग | जीज प्रकट होते हैं और उन बौजोंसे भी पहले
न ।हो जाता है, ही-जैसे वृक्ष उत्पन्न होते रहते हैं, उसी प्रकार
कहलाता है। यह कल्पान्तमें जनशून्य , | री स ल
भा । होते हैं, फिर उससे देवता आदि प्रकट होते हैं,
महालोक बतलाये गये हैं। णाल खत हैं। | नुम
वकि किनारेकी | होते रहते हे । जैसे एक वृक्षसे दूसरा वृक्ष उत्पन्न
से अणक य भो होनेपर पहले वृक्षकौ कोई हानि नहीं होती, उसी
ओरसे घिरा हुआ है--ठीक उसी | सि हाथ नहीं
तरह, जैसे कैथका बीज सब ओर छिलकेसे ढका | प्रका पान म कृ हण च
रहता है । उसके बाद समूचे साय हा |होत। अमे न् क
च ज वथो | भगवान् श्रीहरि स्वयं विकृत न होते हुए ही
जि आय सम्पूर्ण विश्वके कारण होते हैं। जैसे धानके
बाहरकी ओरसे अग्निमय आवरणद्वारा घिरा हुआ | कलम जड़, नाल, पढे, अहुए. काष्ठ, कोर
कमि । चावल, भूसी और कन--सभी रहते
महत्तत्त्त्से आवृत है। इस प्रकार ये सातो आवरण | म व एप रकतसर रहते
उत्तरोत्तर दसगुने बड़े हैँ । महत्तत्वको आवृत हैं त ङतो कार साम
99४ कमो र देव आदि सभी शरीर स्थित रहते हैं तथा
उसका अन्त नहों है और न उसके मापकी कोई | योक
संख्या हौ है । बह अनन्त एवं असंख्यात बताया | ऊह +
गया है । वही सम्पूर्ण जगत्का उपादान है । उसे , हो न न परवा ह जनि का
हो परा प्रकृति का गया है। उसके भीतर ऐसे- | ०362 (अ#
ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड स्थित हैं। जैसे लकड़ीमें ` सम्पूणं जगत् हुआ है,