५५०
» अर्चयस्व इषीकेदौ यदीच्छसि परं पदम् +
{ संक्षिप्त पद्मपुराण
३3399%००४०००००००००००६११३५५:१३५५३ह७१३:४५ ५७७३५ ९ १३९००५०५३५०५००००३५३७५७०००००७७० ०० ९३३३५५०५५३५५५०७४:४४७५९३१३७७००३५०७५३५४
सविता वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, त्वष्टा
और पर्जन्य-- आदि बारहो आदित्य भी वहाँ उपस्थित
हो अपने जाज्वल्यमान तेजसे प्रकाशित हो रहे धे । इन
देवेश्वरोने भी पितामहको प्रणाम किया । मृगव्याध, दार्व,
अपराजित, विश्वेधर भव, कपदी, स्थाणु ओर भगवान्
भग-- ये ग्यारह रुद्र॒ भी उस यज्ञम उपस्थित थे । दोनों
अश्चिनीकुमार, आठों वसु, महाबली मरुद्गण, विशदेव
और साध्य नामक देवता ब्रह्मजीके सम्मुख हाथ
जोड़कर खड़े थे । दोषजीके वैराज यासुकि आदि बड़े-
बड़े नाग भी विद्यमान थे । तार्य, अरिष्टनेमि, महाबली
गरुड, वारुणि तथा आरुणि--ये सभी विनताकुमार वहाँ
पारे थे । त्तरेकपारूकं भगवान् श्रीनारायणने वहाँ स्वयं
पदार्पण किया और समस्त महर्षियोंके साथ लोकगुरु
ब्रह्मजीसे कहा--'जगत्पते ! तुम्हारे ही द्वारा इस सम्पूर्ण
संसारका विस्तार हुआ है, तुम्हींने इसकी सृष्टि की है;
इसल्ल्ये तुम सम्पूर्ण ल्लेकोंके ईश्वर हो । यहाँ हमल्मेगोकि
करनेयोग्य जो तुम्हारा महान् कार्य हो, उसे करनेकी हमें
आज्ञा दो।' देवर्षियोंक साथ भगवान् श्रीविष्णुने ऐसा
कहकर देवेश्वर ब्रह्माजीको नमस्कार किया।
ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशञाओंको
अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु
भी श्रीवत्स-चिहसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय
यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम
परम पवित्र है। वे सर्वसमर्थ हैं, उनका वक्षःस्थल
विदा तथा श्रीविग्रह सम्पूर्णं तेरजोका पुञ्ज जान पड़ता
है । [देवताओं और ऋषियोनि उनकी इस प्रकार स्तुति
कौ--] जो पुण्यात्मा ओकर उत्तम गति और पापियोंको
दुर्गति प्रदान करनेवाले हैं; योगसिद्ध महात्मा पुरुष जिन्हे
उत्तम योगस्वरूप मानते हैं; जिनको अणिमा आदि आठ
ऐश्वर्य नित्य प्राप्त हैं; जिन्हे देवताओमे सबसे श्रेष्ठ कहा
जाता है; मोक्षकी अभिल्प्रपा रखनेवाले संयमी ब्राह्मण
योगसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके जिन सनातन
पुरूषको पाकर जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं;
चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं तथा अनन्त आकाश
जिनका विग्रह है; उन भगवानकी हम शरण लेते हैं। जो
भगवान् सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले हैं,
जो ऋषियों और स्प्रेकॉके स्रष्टा तथा देवताओकि ईश्वर हैं,
जिन्होंने देवताओंका प्रिय और समस्त जगत्क़ा पालन
करनेके लिये चिरकालसे पितरोंकों कव्य तथा
देवताओंको उत्तम हविष्य अर्पण करनेका नियम प्रवर्तित
किया है, उन देवश्नेष्ठ परमेश्वरकों हम सादर प्रणाम
करते हैं।
तदनन्तर वृद्ध एवं बुद्धिमान देवता भगवान्
श्री्रह्माजी यज्ञशालामें ल्लेकपाल्क श्रीविष्णुभगवानके
साथ बैठकर शोभा पाने लगे । वह यज्ञमण्डप घन आदि
सामग्रियों और ऋत्विजोंसे भरा था। परम प्रभावशाली
भगवान् श्रीविष्णु धनुष हाथमे लेकर सब ओरसे उसकी
रक्षा कर रहे थे। दैत्य और दानवॉके सरदार तथा
राक्षसरोंके समुदाय भी वहाँ उपस्थित थे। यज्ञ-विद्या,
केद-विद्या तथा पद और क्रमका ज्ञान रखनेवाले
महर्षियेकि वेद-घोषसे सारी सभा गज उठी। यज्ञमें
स्तुति-कर्मके जानकार, शिक्षाके ज्ञाता, शब्दोंकी व्युत्पत्ति
एवं अर्थका ज्ञान रखनेवाले और मीमांसाके युक्तियुक्त
वाक्योंको समझनेवाले विद्रानेकि उच्चारण किये हुए शब्द
सबको सुनायी देने लगे। इतिहास और पुराणोंके ञाता,
नाना प्रकारके विज्ञानको जानते हुए भी मौन रहनेवाले,
संयमी तथा उत्तम ब्रतोंका पालन करनेवाले विद्वानेनि
वहाँ उपस्थित होकर जप और होममें लगे हुए
मुख्य-मुख्य ब्राह्मणोंकों देखा । देवता ओर असुरोकि गुरु
ल्ेक-पितामह ब्रह्माजी उस यज्ञभूमिमें विराजमान ये ।
सुर और असुर दोनों ही उनकी सेवामें खड़े थे।
प्रजापतिगण--दक्ष, वसिष्ठ, पुलह, मरीचि, अङ्गिरा,
भृगु, अत्रि, गौतम तथा नारद--ये सब स््रेग वहाँ
भगवान् ब्रह्माजीकी उपासना करते थे । आकाश, वायु,
तेज, जल, पृथ्वी, शाब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध,
मीमौसा, गणित, गजविद्या, अश्वविद्या ओर इतिहास --
इन सभी अङ्गोपा्गोसे विभूषित सम्पूर्ण बेद भी मूर्तिमान्