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» पुष्कर क्षेत्रपें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका आकट +

सबकी बातें समा जाती हैं--जों सबकी सह लेता है

तथा जिसके पाससे कोई बात लौटकर पुनः वक्ताके पास

नहीं जाती--जो कटु वचन कहनेवालेको भी कटु उत्तर

नहीं देता, वही संन्यासाश्रममें रहनेका अधिकारी है।

कभी किसीकी भी निन्दाको न तो करे और न सुने ही ।

विशेषतः ब्राह्मणोंकी निन्दा तो किसी तरह न करें।

ब्राह्मणक जो शुभकर्म हो, उसीकी सदा चर्चा करनी

चाहिये। जो उसके लिये निन्दाकी बात हो, उसके

विषयमे मौन रहना चाहिये । यही आत्मशुद्धिकी दवा है।

जो जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता

है, जो कुछ मिल जाय उसीको खाकर भूख मिटा छेता

है तथा जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्राह्मण

(अहावेत्ता) समझते हैं। जो जन-समुदायको साँप

समझकर, स्त्रेह-सम्बन्धको नरक जानकर तथा ख्तरियोंको

मुर्दी समझकर उन सबसे डरता रहता है; उसे देवतालोग

ब्राह्मण कहते है । जो मान या अपमान होनेपर स्वये हर्ष

अथवा क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उसे देवतालोग

ब्राह्मण मानते है । जो जीवन और मरणका अभिनन्दन न

करके सदा कालकी ही प्रतीक्षा करता रहता है, उसे

देवता ब्राह्मण मानते हैं। जिसका चित्त राग-द्वेषादिके

वशीभूत नहीं होता, जो इन्द्र्योकये वदाम रखता है तथा

जिसकी बुद्धि भी दूषित नहीं होती, वह मनुष्य सब

पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंसे निर्भय

है तथा समस्त प्राणी जिससे भय नहीं मानते, उस

देहाभिमानसे मुक्त पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता । जैसे

हाथीके पदचिह्वमे अन्य समस्त पादचारी जीवॉके

पदचिह्न समा जाते हैं, तथा जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान

चित्तमें लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सारे धर्म और अर्थ

अहिंसामें लीन रहते हैं। राजन्‌ ! जो हिसाका आश्रय

लेता है वह सदा ही मृतकके समान है।

इस प्रकार जो सबके प्रति समान भाव रखता है,

भलीभाँति धैर्य धारण किये रहता है, इन्दियोको अपने

वहामि रखता है तथा सम्पूर्ण भूतोंको त्राण देता है, वह

ज्ञानी पुरुष उत्तम गतिको प्राप्त होता है। जिसका

अन्तःकरण उत्तम ज्ञानसे परितृप्त है तथा जिसमें ममताका

सर्वथा अभाव है, उस मनीषी पुरुषकी मृत्यु नहीं होती;

ह अमृतत्वको प्राप्त हो जाता है। ज्ञानी मुनि सब

प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर आकाराकी भाँति

स्थित होता है। जो सबमें विष्णुकी भावना करनेवाल्त्र

और शान्त होता है, उसे ही देवताल्त्रेग ब्राह्मण मानते हैं।

जिसका जीवन धर्मके लिये, धर्म आत्मसन्तोषके लिये

तथा दिन-रात पुण्यके लिये हैं, उसे देवतास्तेग ब्राह्मण

समझते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो

केकि आरम्भका कोई संकल्प नहीं करता तथा नमस्कार

और स्तुतिसे दूर रहता है, जिसने योगके द्वारा कमोंको

क्षीण कर दिया है, उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं।

सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देना संसारमें समस्त

दानोंसे बढ़कर है। जो किसीकी निन्दाका पात्र नहीं है

तथा जो स्वयै भी दूसरोंकी निन्दा नहीं करता, वही ब्राह्मण

परमात्माका साक्षात्कार कर पाता है। जिसके समस्त पाप

नष्ट हो गये हैं, जो इहल्लेक और परलोकमें भी किसी

वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं करता, जिसका मोह दूर हो

गया है, जो मिट्टीके ढेले और सुवर्णको समान दृष्टिसे

देखता है, जिसने रोषको त्याग दिया है, जो निन्दा-सतुति

और प्रिय-अप्रियसे रहित होकर सदा उदासीनकी भाँति

विचरता रहता है, वही कास्तवमे संन्यासी है।

न + 4 सै

पुष्कर क्षत्रमे ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य

भीष्पजीने कहा--ब्रह्मनू आपके मुखसे यह

सच प्रसङ्ग मैंने सुना; अब पुष्कर क्षेत्रमें जो ब्रह्मजीका

यज्ञ हुआ था, उसका वृत्तान्त सुनाइये। क्योंकि इसका

श्रवण करनेसे मेरे शारीर [और मन] की झुद्धि होगी।

पुलछस्त्यजीने कहा--राजन्‌ ! भगवान्‌ ब्रह्माजी

पुष्कर क्षेत्रमें जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय जो-जो

बाते हुईं उन्हें बतत्तता हूँ; सुनो । पितामहका यज्ञ आदि

कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अङ्गिरा,

मै, पुलह, क्रतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास

जाकर उनके चरणोमि मस्तक झुकाया । धाता, अर्यमा,

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