आह्वपर्य ]
* द्वितीया-कल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा एवं पुष्यद्चितीया-अतकी महिमा «
डर
पुत्री हूँ। मेरे पति च्यवन ऋषि यहां तपस्या कर रहे है, उन्हींकी
सेवाके लिये मैं यहाँ उनके समीप रहती हूँ । कहिये, आपत्मेग
कौन हैं ?
अश्चिनीकुमारोने कहा--हम देवताओंके वैद्य
अधिनीकुमार हैं। इस वृद्ध पतिसे तुम्हें क्या सुख मिलेगा ?
हम दोनोंमें किसी एकका वरण कर लो।
सुकन्याने कहा--देवताओ ! आपका ऐसा कहना
ठीक नहीं। मैं पतिश्रता हूँ और सब प्रकारसे अनुरक्त होकर
दिन-रात अपने पतिकी सेवा करती हूँ।
अश्विनीकुमारोंने कहा--यदि ऐसी बात है तो हम
तुम्हरे पतिदेक्को अपने उपचारक दवाय अपने समान स्वस्थ
एवं सुन्दर बना देंगे और जब हम तीनों गङ्गामे स्नानकर बाहर
निकरे फिर जिसे तुम पतिरूपमें यरण करना चाहो कर लेना ।
सुकन्याने कहा--मैं बिना पतिकी आके कुर नहीं
कह सकती ।
अश्चिनीकुमारोने कडा--तुम अपने पतिसे पूछ
आओ, तबतक हम यहीं प्रतीक्षा रहेंगे। सुकन्याने
च्यवनपुनिके पासं जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त अतत्मया।
अख्विनीकुमारॉँंकी बात स्वीकार कर च्यवनमुनि सुकन्याको
लेकर उनके पास आये।
च्ययनमुनिने कहा--अश्विनीकुमारें ! आपकी दार्त
हमें स्वीकार है। आप हमें उत्तम रूपवान् बना दें, फिर सुकन्या
चाहे जिसे वरण कोरें। च्यवनमुनिके इतना कहनेपर
अश्विनीकुमार च्यवनपुनिको लेकर गद्भाजीके जले प्रविष्ट हो
भये और कुछ देर बाद तीनों ही बाहर निकले । सुकन्याने देखा
कि ये तीनों तो समान रूप, समान अवस्था तथा समान
वच्नाभूषणोंसे अलंकृत हैं, फिर इनमें मेरे पति च्ययनमुनि कौन
हैं? वह कुछ निश्चित न कर सकी और व्याकुलः हो
अश्विनीकुमारोंकी प्रार्थना करने लूगी।
सुकन्या बोली--देवो ! व्यन्त कुरूप पतिदेकका भी
मैंने परित्याग नहं किया धा । अब तो आपकी कृपासे उनका
रूप आपके समान सुन्दर हो गया है, फिर मैं कैसे उनका
परित्याग कर सकती ह । मैं आपकी दारण हूँ, मुझपर कृपा
कीजिये |
सुकन्याकी इस प्रार्थनासे अश्विनीकुमार प्रसन्न हो गये
और उन्होंने देवता ओके चिह्झोंको धारण कर लिया । सुकन्याने
देखा कि तीन पुरुषोपेसे दोकी पर्क गिर नहीं रही हैं और
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पुरुष है, बह भूमिपर खड़ा है और उसकी पलके भी गिर रहो
हैं। इन चिह्रोंको देखकर सुकत्याने निश्चित कर लिया कि ये
तीसरे पुरुष ही मेरे स्वामो च्यवनमुनि हैं। तब उसने उनका
करण कर लिया | उसी समय आकाक्षसे उसपर पुष्प-वृष्टि होने
लगी और देवगण दुन्दुभि बजाने कगे ।
च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंसे कहा--देवो ! आप
स्त्रेगोने मुझपर बहुत उफ्कार किया है, जिसके फलस्वरूप मुझे
उत्तम रूप और उत्तम पत्नी प्राप्त हुई। अब मैं आपलोगॉका
क्या प्रत्युपकार ककूँ, क्योंकि जो उपकार करनेवालेका
प्रत्युफ्कार नहीं करता, वह क्रमसे इक्कीस नरकोंमें जाता है,
इसलिये आपका मैं कया प्रिय करूँ; आप लोग कहें।
अश्विनीकुमारोंने उनसे कहा--महार्पन् ! यदि आप
हारा प्रिय करना ही चाहते हैं तो अन्य देवताओंकी तरह हमें
भी यज्ञभाग दिलूवाइये | च्यवनमुनिने यह बात स्वीकार कर
ली, फिर वे उन्हें बिदाकर अपनी भार्यां सुकन्याके साथ अपने
आश्रमे आ गये।
राजा झर्यातिकों जब यह स्मरा वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो ये
१-ठपकस वरि यो > करोस्युपकारिणः | एकविशत् स॒ गच्छेच नेत्काणि क्रयेण यै । (्राह्मपर्व १९ । ९५०-१५१)