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* खह्यस्वण्ड + ४९

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आरम्भ, मध्य और अन्तर्मे जो श्रीविष्णुका स्मरण ईश्वरकी स्थिति है, तभीतक देहधारी जीव सब

करता है, उसका वैदिक कर्म साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो प्रकारके कर्म करनेमें समर्थ होता है। उन ईश्वर

जाता है*। जगत्‌की सृष्टि करनेवाला मैं विधाता, | (या उनके अंशभूत जीव)-के निकल जानेपर

संहारकारी हर तथा कर्मोके साक्षी धर्म--ये सब | शरीर शव होकर अस्पृश्य एवं त्याज्य हो जाता

जिनकी आज्ञाके परिपालक हैं, जिनके भय ओर | है । ऐसे सर्वेश्वर शिवको कौन देहधारी नहीं

आज्ञासे काल समस्त लोकोंका संहार करता है, | मानता? सबकी सृष्टि करनेवाले साक्षात्‌ जगत्‌-

यम पापियोंको दण्ड देता है और मृत्यु सबको | विधाता ब्रह्मा निरन्तर उन भगवानके चरणारविन्दोका

अपने अधिकारमें कर लेती है । सर्वेश्वरी, सर्वाद्या चिन्तन करते हैं, परंतु उनका दर्शन नहीं कर

और सर्वजननी प्रकृति भी जिनके सामने भयभीत | पाते । ब्रह्माजीने श्रीकृष्णकी प्रसत्नताके लिये जब

रहती तथा जिनकी आज्ञाका पालन करती है । वे | एक लाख युगोतक तप किया, तब इन्हें ज्ञान

भगवान्‌ विष्णु हौ सबके आत्मा ओर सर्वेश्वर है । प्रा हुआ और ये संसारकी सृष्टि करनेमे समर्थ

महेश्वर बोले-- ब्रह्मन्‌! ब्रह्माजीके जो सुप्रसिद्ध | हए। मैंने भी श्रीहरिकी आराधना करते हुए सुदीर्घ

पुत्र हैं, उनमेंसे किसके वंशमें तुम्हारा जन्म हुआ | कालतक, जिसकी कोई गणना नहीं है, तप

है? वेदोंका अध्ययन करके तुमने कौन-सा सार | किया; परंतु मेरा मन नहीं भरा। भला, मङ्गलकौ

तत्त्व जाना है? विप्रवर! तुम किस मुनीन्द्रके | प्रापिसे कौन तृत्त होता है? अब मैं समस्त कर्मोसे

शिष्य हो? और तुम्हारा नाम क्या है? तुम अभी | निःस्पृह हो अपने पाँच मुखोँसे उनके नाम और

बालक हो तो भी सूर्यसे बढ़कर तेज धारण करते | गुणोंका कीर्तन एवं गान करता हुआ सर्वत्र घूमता

हो। तुम अपने तेजसे देवताओंको भी तिरस्कृत | रहता हूं । उनके नाम और गुणोंके कीर्तनका ही

करते हो; परंतु सबके हृदयमें अन्तर्यामी आत्मारूपसे | यह प्रभाव है कि मृत्यु मुझसे दूर भागती है।

विराजमान हमारे स्वामी सर्वेश्वर परमात्मा विष्णुको | निरन्तर भगवन्नामका जप करनेवाले पुरुषको

नहीं जानते हो, यह आश्चर्यकी बात है। उन | देखकर मृत्यु पलायन कर जाती है। चिरकालतक

परमात्माके ही त्याग देनेपर देहधारियोंका यह | तपस्यापूर्वक उनके नाम और गुणोंका कीर्तन

शरीर गिर जाता है और सभी सूक्ष्म इन्द्रियवर्ग |करनेसे ही मैं समस्त ब्रह्माण्डोंका संहार करनेमें

एवं प्राण उसके पीछे उसी तरह निकल जाते | समर्थ एवं मृत्युझ्रय हुआ हूँ। समय आनेपर मैं

हैं, जैसे राजाके पीछे उसके सेवक जाते हैं।|उन्हों श्रीहरिमें लोन होता हूँ तथा पुनः उन्हीसे

जीव उन्हींका प्रतिबिम्ब है। वह तथा मन, ज्ञान, | मेरा प्रादुर्भाव होता है। उन्हींकी कृपासे काल

चेतना, प्राण, इन्द्रियवर्ग, बुद्धि, मेधा, धृति, स्मृति, | मेरा संहार नहीं कर सकता और मौत मुझे मार

निद्रा, दया, तनद्रा, क्षुधा, तृष्णा, पुष्टि, श्रद्धा, नहीं सकती। ब्रह्मन्‌! जो श्रीकृष्ण गोलोकधाममें

संतुष्टि, इच्छा, क्षमा ओर लज्जा आदि भाव | निवास करते हैं, वे ही वैकुण्ठ और श्रेतद्वीपमें

उन्हीकि अनुगामी माने गये हैं। वे परमात्मा जब | भी हैं। जैसे आग और उसकी चिनगारियोंमें कोई

जानेको उद्यत होते हैं, तब उनकी शक्ति आगे- | अन्तर नहीं है, उसी प्रकार अंशी और अंशमें

आगे जाती है। उपर्युक्त सभी भाव तथा शक्ति | भेद नहीं होता। इकहत्तर दिव्य युगोंका एक

उन्हीं परमात्माके आज्ञापालक हैं। देहमें जबतक मन्वन्तर होता है। (प्रत्येक मन्वन्तरे दो इन्द्र

*कर्मारम्भे च मध्ये वा शेषे विष्णु च य: स्मरेत्‌ | परिपूर्णं तस्य कर्म बैदिक॑ च भवेद्‌ द्विज॥

(ब्रह्मखण्ड १७। १८)

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