मं० १ सु० ३५ ४९
४१३. याति देवः प्रवता यात्यद्रता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम्।
आ देवो थाति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥ ३ ॥
स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर मचे उतरते हुए निरन्तर गतिशील रहते हँ । वे सविता
देव तमरूपी पापों को नष्ट करते हुए अतिदूर से इस यज्ञशाला में श्वेत अश्वों के रथ पर आसीन होकर आति
हैं ॥३ ॥
४१४. अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् ।
आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥ ४ ॥
सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपों मे सुशोभित, पूजनीय, अद्भुत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिल्ञा
को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित
होकर आति हैं ॥४ ॥
४१५. वि जनाज्छचावाः शितिपादो अख्यत्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः ।
शश्वद्विशः सवितुरदव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥ ५ ॥
सूर्यदेव के अश्च श्वेत पैर वाले हैं, वे स्वर्णरथ को वहन करते हैं और मानवो को प्रकाश देते है । सर्वदा सभी
लोकों के प्राणी सवितादेव के अंक में स्थित हैं, अर्थात् उन्हीं पर आश्रित है ॥५ ॥
४१६. तिस्रो द्यावः सवितुर्द्धा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् ।
आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह व्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥ ६ ॥
तीनों लोकों में द्यावा और पृथिवी ये दोनों लोक सूर्य के समीप हैं, अर्थात् सूर्य से प्रकाशित है । एक
अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धुरे कौ कील के समान सूर्यदेव प्र ही सब लोक
(नकत्रादि) अवलम्बित है । जो यह रहस्य जानें, वे सबको बतायें ॥६ ॥
| घुलोक में सूर्यदेव स्थित हैं, पृथ्वी पर उनके हारा विकिरित ऊर्जा का प्राव है, इसलिए यह दो लोक उनके पास कहे
गये हैं। बीच में अंतरिक्ष उससे दूर क्यों है ? विज्ञान का नियम है कि विकिरित किरणें जब पदार्थ पर पड़ती हैं, तथी अपनी
ऊर्जा उसे देती हैं, बीच के वायुमण्डल को प्रभावित नहीं करती, इसलिए बीच का अन्तरि्च सोक सौर ऊर्जा से अप्रभावित
रहता है, अन्यथा वायुमण्डल इतन गर्म हो जाता कि सहन करना संभव नहीं होता, इस अनुशासन के अन्तर्गत- अन्तरिक्ष यम
(अनुशासन के देवता) का द्वार कहा गया है ||
४१७. वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः ।
क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान॒ ॥ ७ ॥
गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर, दीप्तिमान् सूर्यदेव अन्तरिक्षाद को प्रकाशित करते है ।
ये सूर्यदेव कहाँ रहते हैं? उनकी रश्मियाँ किस आकाश पें होंगी ? यह रहस्य कौन जानता है ? ॥७ ॥
४१८. अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् ।
हिरण्याक्षः सविता देव आगादधद्रतना दाशुषे वार्याणि ॥ ८ ॥
हिरण्य दृष्टि युक्त (सुनहली किरणों से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठों दिशाओं (प्रमुख ४ उपदिशाएँ)
उससे युक्त तीनों लोको, सप्त सागरो आदि को आलोकित करते हुए दाता {हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियाँ
लेकर यहाँ आएँ ॥८ ॥