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ॐअ ९२]

यद्धूतं यच्च वै भव्यं पुरुषोत्तम तद्धवान्‌ ।

त्वत्तो विराट्‌ स्वराद सम्राद त्व्तश्चाप्यधिपूरुषः ॥ ५७

अत्यरिच्यत सोऽधश्च तिर्यगृध्वं च वै भुतः ।

त्वत्तो विश्वपिदं जातं त्वत्तो भूतभविच्यती ॥ ५८

त्वद्ूपधारिणश्चान्तर्भूतं सर्वपिदं जगत्‌ ।

त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं पशर्दिधा ॥ ५९

त्वत्तः ऋचोऽथ सामानि त्वत्तरछन्दासि जजिरे ।

त्क्तो यजुष्यजायन्त त्वत्तोऽशवाश्चैकतो दतः ॥ ६०

गावस्त्वत्त: समुद्धूतास्त्वत्तोऽजा अवयो मृगाः ।

त्वन्पुखादब्राह्मणास्त्वत्तों बाहो: क्षत्रमजायत ॥ ६१

वैयास्तवोरुजाः शरास्तव पद्यां समुद्गता: ।

अक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाचन्द्रमा मनसस्तव ॥ ६२

प्राणोऽन्तःसुषिराज्ातो युखादभ्निरजायत ।

नाभितो गगन द्यौश्च शिरसः समवर्तत ॥ ६३

दिः श्रोत्रात्क्षिति: पद्भयां तवत्तः सर्वमभूदिदम्‌ ॥ ६४

न्यग्रोध: सुमहानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः ।

संयमे विश्वमखिलं खीजभूते तथा त्वयि ॥ ६५

बीजाटङ्कुरसम्भूतो न्यग्रोधस्तु समुत्थितः ।

विस्तारं च यथा याति त्वत्तः सृष्टौ तथा जगत्‌ ॥ ६६

यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्नादपि दूश्यते ।

एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं त्वत्स्थायीश्वर दृश्यते ॥ ६७

हादिनी सन्धिनी संवित्त्वय्येका सर्वसंस्थितौ ।

ह्रादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ॥ ६८

पृथग्भूतेकभूताय भूतभूताय ते नमः ।

व्यक्त प्रधानपुरुषौ विराट्‌ सम्राट्‌ स्वराट्‌ तथा ।

विभाव्यतेऽन्तःकरणे पुस्यष्क्षयो भवान्‌ ॥ ७०

सर्वस्मिन्‍्सर्वभूतस्त्व॑ सर्वः सर्वस्रूपथुक्‌ ।

सर्व त्वत्तस्ततश्च त्वं नमः सर्वात्पनेऽस्तु ते ॥ ७१

श्रथम अवा

डर

है पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत्‌ जो कुछ पदार्थ हैं वे

सब आप ही हैं तथा वियद्‌, स्वराट्‌, सं्राट्‌ और अधिपुरुष

{ब्रह्या) आदि भी सब आपहीसे उत्पन्न हुए हैं ॥ *५७॥ ये हो

आप इस पृथिवीके नीचे-ऊपर और इधर-उधर सब ओर बढ़े

हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत्‌ आपहीसे उत्पन्न हुआ है तथा

आपसेसे भूत और भविष्यत्‌ हुए हैं ॥ ५८ ॥ यह सम्पूर्ण जगत्‌

आपके क्ह्याण्डके अन्तर्गत है [| फिर आपके

अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या है ] जिसमे सभो पुरोडाशॉक्)ा

एवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य (दधि और दूत) तथा

| आम्य और वन्य ] दो प्रकारके पशु आपहोसे उत्पन्न हुए

है॥ ५९ ॥ आपहीसे ऋक्‌, साम और गायत्री आदि छद

प्रकट हुए हैं, आपल्ीसे यजुरवेदका प्रादुर्भाव हुआ है और

आपहोसे अश्च तथा एक ओर दाँतबाले महिष आदि जीव

उत्पन्न हुए हैं ॥ ६० ॥ आपहीसे गौओं, वकरियों, भेड़ों और

मृगेकौ उत्पत्ति हुई है; आपहोके मुखसे ब्राह्मण, वु

क्षत्रिय, ज॑घाओंते ईय और चरणोंसे शुद्र प्रकट हुए हैं तथा

आपके त्रो सूर्य, प्राणसे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीतरी चिर

(नासार्ध) से प्राण, मुखसे अपि, नाभिसे आकादा, सिरसे

र्ग, शरो्रसे दिगा और चरणोंसे पृथिबी आदि उत्पन्न हुए हैं;

इस प्रकार है प्रभो ! यह सम्पूर्ण जगत्‌ आपहीसे प्रकट हुआ

है ॥ ६१--६४ ॥ जिस प्रकार नन्‍हेंसे जीजमें बड़ा भारी

वट -चृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय -कालमें यह सम्पूर्ण जगत्‌

बीज-श्वरूप आपीय छीन रहता है। ६० ॥ जिस प्रकार

बीजसे अब्जभुररूपमें में प्रकर हुआ क्ट-वृक्ष बढ़कर अत्यन्त

विस्तास्वाला हो जाता है उसी प्रकार सुष्टिकालमें यह जगत्‌

आपहौसे प्रकट होकर फैल जाता है ॥ ६६ ॥ हे ईश्वर ! जिस

प्रकार केलेका पौधा छिलके और पत्तोने अलग दिखायी नहीं

देता उसो प्रकार जगते आप पृथक्‌ नहीं हैं, बह आपहीमें

स्थित देखा जाता है। ६७ ॥ सबके आधारभूत आपे

ह्ादिनी (नित्त आह्वादित करनेवाली) और सन्धिनी

(बिच्छेटरहित) संवित्‌ (विद्याशक्ति) अभिन्नरूपसे रहती

है। आपमें (विषयजन्य) आह्वाद या ताप देनेवाल

(सात्विको या तापसं ) अथवा उभयमिश्ना (राजसी ) कोई भौ

संवित्‌ नहीं है, क्योंकि आप निगुण ३॥ ६८ ॥ आप

[ कार्यदृष्टिस ] पृथक्‌ु-रूप और ! कारणदृष्टिसे एकरूप

है, आप ही भूतसूक्ष्म हैं और आप ही नाना जीवरूप है । हे

भृतन्तरात्मन्‌ ' ऐसे पक मैं नमस्कार करता हूं । ६९ ॥

[ योगियेकरि इय } अन्तःकरणे आए हीं महततव,

प्रधान, पुरुष, विराट, सम्राद और स्वराद्‌ आदि रूपोसे

भावना ज़िये जाते हैं और ` क्षयशील ] पुरुषोंगे आप

नित्य अक्षय हैं॥७०॥ आकाशादि सर्वभूतोमे सार

अर्थात्‌ उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपौ धारण

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