Home
← पिछला
अगला →

आचारकाण्ड ]

» श्रीगोपालजीकी पूजा, त्रैलोक्यमोहन-पत्र तथा श्रीधर-पूजनविधि *

४९

ऋऋकऋऋऋकऋकऋकक्ऋऋऋऋऋ ऋक़कऋक़ऋक ऋ़फ़फ़फ़कफकफा ऋऋऋफ़फफ़फफ कफ कफ ऋफ़फ़क़ कक कक ऋ|#ऋऋऋकऋऋऋऊऋृ ऋककऋआऋऋऋऋऋकफकफऋ ## ४ # ##ऋकऋऋऋऋआ

सर्पो एवं अन्य विषैले जीव-जन्तुओंके विषको दूर करनेका मन्त्र

सूतजीने कहां--अब मैं सर्पादि विभिन्न विषैले जीव-

जन्तुओंके काटनेसे कष्ट पहुँचानेवाले विषकों दूर करनेमें

समर्थ मन्त्रकों कह रहा हूँ, जो इस प्रकार है--

"ॐ कणिधिकीणिकक्वाणी चर्वाणी भूतहारिणि

'फणिविधिणि विरथनारायणि उपे. दह दह हस्तै चण्डे

रौद्रे महेश्वरि महामुखि ज्वालामुखि शङ्कुकर्णि शुकमुण्डे

शत्रं हन हन सर्वनाशिनि स्वेदय स्वङ्गिलोणितं सक्रिरीक्षसति

मनसा देवि सम्मोहय सम्मोहय रुद्रस्य हृदये जाता रुद्रस्य

दये स्थिता। रुद्रो रौद्रेण रूपेण त्वं देवि रक्ष रक्ष मां

हूं मां हूं फफफ ठठ स्कन्दपेखलाबालग्रहशत्ुविषहारी

ॐ शाले माले हर हर विषोङ्काररहिविष्वेगे हां हां

शवरि हुँ शवरि आकौलवेगेशे सर्वे विंचमेघमाले

सर्वनागादिविषहरणम्‌।"

इस मन्त्रका प्रयोग करते समय माहेश्वरी उपादेवीसे

प्रार्था करे कि है उमे! तुम रुद्रके हृदयमें उत्पन्न हुई

हो और उसीमें रहती हो। तुम्हारा रौद्र रूप है। तुम्हें

रौद्री भी कहा जाता है। तुम्हारा मुख ज्वालाके समान

जाज्वल्यमान है तथा तुमने अपने कटिप्रदेशमें श्रुद्र घण्टिका

लगी करधनी पहन रखो है। तुम भूतोंकी प्रिय हो,

सर्पोंके लिये विषरूपिणों हो, तुम्हाग नाम विरथनारायणी

है तथा तुम शुकमुण्डा हो और कानोमें शङ्कु पहती हुईं

हो। हे विशाल मुखवाली, भयंकर एवं प्रचण्ड स्वभाववाली

चण्डादेवी! हाथोंमें ज्वलन-शक्ति पैदा कर, शत्रुका हनन

कर, हनन कर। सब प्रकारके विषोंका नाश करनेवाली हे

देखि! मेरे सर्वाज्र्में फैले हुए विषको प्रभावहीन कर

दे। उस विषको तुम देख रही हो। [ उस काटनेवाले जन्तुको ]

सम्मोहित करो, सम्मोहित करो। है देवि ! तुम मेरी रक्षा करो,

रक्षा करो। इस प्रकार प्रार्थना एवं चिन्तन करके म मां

फफफ ठट ' इसके उच्चारण करे तथा ' स्कन्दकौ

बालग्रहो, शत्रुओं और विषोंका हरण करनेवाली हे शाला-

माला! नाना प्रकारके विकि वेगका हरण कर्‌, इरण कर्‌ ।'

ऐसा उच्चारण करे और 'हां हां शवरि हं ' शवरि कहकर

वेगपूर्ण गतिज्ञोलॉमें अतिगशिशील सर्वत्र व्यापिनी

मैघमालारूपिणी देवि! मेरे सभी नागादि विषजन्तुओँसे

उत्पन्न विषका हरण करो ।

[इस प्रकार चिन्तन और प्रार्थना करते हुए रोगीके प्रति

स्पर्शादि करते हुए मन्त्रपाट करे ।]

(अध्याय २७)

^ ककय ~~

श्रीगोपालजीकी पूजा, त्रैलोक्यमोहन-मन्त्र तथा

श्रीधर-पूजनविधि

श्रीसूतजीने कहा--हे ऋषियों! मैं भोग और मोक्ष

प्रदान करनेवाली श्रीगोपालजी तथा भगवान्‌ श्रीधर विष्णुकौ

पूजाका वर्णन कर रहा हूँ, इसे सूरन । पूजा प्रारम्भ करनेसे

पहले पूजा-मण्डलके दवारदेशमे गङ्गा और यमुनाके साथ

धाता और विधाताकौ, श्रीके साथ शङ्खं, पद्मनिधि एवं

शाब्रंधनुष और शरभकी पूजा करनी चाहिये तथा पूर्व

दिशामें भद्र और सुभद्रकी, दक्षिण दिशामें चण्ड और

प्रचण्डकी, पश्चिम दिशामें बल और प्रबलकी, उत्तर दिशार्से

जय और विजयक्रौ तथा चारों दरवाजोंपर श्री, गण, दुर्गा

और सरस्वतीकी पूजा करनी चाहिये।

मण्डलके अग्रि आदि कोणोंमें और दिशाओंपें परम

भागवत नारद, सिद्ध तथा गुरुका एवं नल-कूबरका पूजन

करे। पूर्व दिशा विष्णु. विष्णुता तथा विष्णुशक्तिकी

अर्चना करे । इसके वाद विष्णुके परिवार्की अर्थना करे ।

मण्डलके मध्यमे शक्तिकी ओर कर्म, अनन्त, पृथ्वी, धर्म,

ज्ञान तथा वैराग्यकी अग्नि आदि कोरणोमिं पूजा करे।

वायव्य-कोणके साथ उत्तर दिशामें प्रकाशात्मक एवं

ऐश्वर्ुयकी पूजा करे। ' गोपीजनवस्लभाय स्वाहा'--यह

गोपालमन््र है। मण्डलको पूर्व दिशासे आरम्भ करके

क्रमशः आठों दिज्ञाओँमें जाम्बवती और सुशोलाके साथ

रुक्मिणी, सत्यभामा, सुनन्दा, नाग्रजिती, लक्ष्मणा और

भित्रविन्दाकी पूजा करनौ चाहिये।

साथ हो श्रोगोपालके शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, मुसल,

खङ्ग, पारा, अङ्कुश, श्रीवत्स, कौस्तुभ, मुकुट, वनमाला,

इन्द्रादि ्वजवाहक दिक्पल, कुमुदादिगण और चिष्वक्सेनका

पूजन करके श्रीलक्ष्मीसहित कृष्णकौ भी अर्चना करनी

चाहिये।

गोपौजनवल्लभके मन्त्र जपनेसे दथा उनका ध्यान

← पिछला
अगला →